मराठा शक्ति का उदय और पतन पार्ट-२

मुगलों को धूल धूसरित करने में मराठों का बहुत बड़ा हाथ था। उनके पतन के बाद मराठे भारत की सबसे बड़ी शक्ति के रूप में भारतीय राजनीति में उभरे। उनसे आशा की जाती थी, कि मुगल सम्राज्य के ध्वंसावशेष  पर वे अपने राजनीतिक प्रभुत्व की इमारत गढ़ने में सफल होंगे। इसके लिए उन्होंने प्रयास भी किया, परंतु उनकी राजनीतिक प्रभुत्व की इमारत बनने से पहले ही लड़खड़ा कर ताश के पत्ते की भांति बिखर गई। जिस मराठा साम्राज्य को शिवाजी महाराज ने अपनी प्रतिभा और खून से सींचा था, और जिसे बाजीराव प्रथम ने बुलंदियों पर पहुंचाया था। वह छिन्न-भिन्न हो कर बिखर गया।

पानीपत की हार मराठों के लिए बहुत बड़ा आघात थी। उन्हें अपनी फौज के बेहतरीन सैनिकों से हाथ धोना पड़ा और उनकी राजनीतिक प्रतिष्ठा को बड़ा धक्का लगा। सबसे बढ़कर, उनकी हार ने अंग्रेज़ी ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल और दक्षिण भारत में अपनी सत्ता मजबूत करने का मौका दिया। अफ़गानों को भी अपनी जीत से कोई फायदा नहीं हुआ। वे पंजाब को अपने अधिकार में नहीं रख सके। वस्तुत: पानीपत की तीसरी लड़ाई ने यह फैसला नहीं किया कि, कौन राज करेगा बल्कि यह तय कर दिया कि भारत पर कौन शासन नहीं करेगा। इससे भारत में ब्रिटिश सत्ता के उदय का रास्ता साफ हो गया।

ग्यारह सालों की छोटी अवधि में ही मराठा साम्राज्य का सत्रह वर्षीय माधव राव 1761 ईसवी में पेशवा बना, वह एक प्रतिभाशाली सैनिक और  राजनेता था। जिसने अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को वापस लौटा लिया। एक तरफ उसने निजाम को हराया तो दूसरी तरफ मैसूर के हैदर-अली को नज़राना देने के लिए मजबूर किया।  और साथ ही रुहेलों को हराकर, राजपूतो पर फिर से दावा किया।

माधव राव 1772 में क्षय रोग से मर गया। अब मराठा साम्राज्य अस्तव्यस्तता की स्थिति में पहुँच गया। पुणे में बालाजी बाजीराव के छोटे भाई रघुनाथ राव और माधव राव के छोटे भाई नारायण राव के बीच सत्ता के लिए संघर्ष छिड़ा। नारायण राव 1773 ईसवी में मारा गया। जिसका स्थान मरणोपरांत जन्मा पुत्र सवाई माधव राव ने लिया। निराश होकर रघुनाथ राव अंग्रेजों के पास चला गया और उनकी मदद से उसने सत्ता हथियाने की कोशिश की फलस्वरूप पहला आंग्ल-मराठा युद्ध हुआ। पेशवा की सत्ता अब कमज़ोर होने लगी। पुणे में सवाई माधव राव के समर्थकों और रघुनाथ राव के पक्षधरों के बीच लगातार षड्यंत्र चल रहे थे। सवाई माधव राव के समर्थकों का नेता नाना फड़नवीस था। इस बीच बड़े मराठा सरदार अपने लिए उत्तर में अर्धस्वतंत्र राज्य कायम करने में लगे थे। वे शायद ही कभी पेशवा के साथ सहयोग करते थे। उनमें सबसे प्रमुख थे, बड़ौदा के गायकवाड़, इंदौर के होल्कर, नागपुर के भोंसले और ग्वालियर के सिंधिया। उन्होंने मुगल प्रशासन के ढर्रे पर नियमित प्रशासन कायम किए थे और उनके पास अपनी अलग अलग फौजें थीं। पेशवा के प्रति उनकी निष्ठा अधिक से अधिक नाम मात्र के लिए होती गई। उन्होंने पुणे में विरोधी गुटों का साथ दिया और मराठा साम्राज्य के दुश्मनों के साथ मिलकर साज़िशें की।

उत्तर के मराठा शासकों में सबसे महत्त्वपूर्ण महादजी सिंधिया था। उसने फ्रांसीसी और पुर्तगाली अफसरों और बंदूकधारियों की सहायता से एक शक्तिशाली फौज खड़ी की और आगरा के पास शस्त्र निर्माण के कारखाने स्थापित किए। 1784 ईसवी में उसने बादशाह आलम को अपने वश में कर लिया। उसके कहने पर बादशाह ने पेशवा को अपना नायब-ए-गुनायब बनवाया। बदले में शर्त यह थी कि महादजी पेशवा की ओर से काम करेगा। मगर उसने अपनी शक्ति नाना फड़नवीस के ख़िलाफ़ साज़िशें करने में लगाई। वह इंदौर के होल्कर का भी बड़ा कटु शत्रु था। उसकी मृत्यु 1794 में हुई। जबकि नाना फड़नवीस की मृत्यु 1800 में हुई। वह और नाना फड़नवीस उन महान सैनिकों और राजनेताओं की परंपरा की आखिरी कड़ी थे। जिन्होंने मराठा शक्ति को अठारहवीं सदी में उसके उत्कर्ष पर पहुँचाया था।

सवाई माधव राव की मृत्यु 1795 में हुई। उसकी जगह रघुनाथ राव के बेटे बाजीराव द्वितीय ने ली। तब तक अंग्रेजों ने भारत में अपने आधिपत्य के प्रति मराठों की चुनौती खत्म करने का फैसला कर लिया था। अंग्रेजों ने अपनी चतुर कूटनीति के द्वारा आपस में लड़ने वाले मराठा सरदारों को विभाजित कर दिया और दूसरे और तीसरे मराठा युद्ध अर्थात 1803 से लेकर 1805 और 1816 से लेकर 1819 में उन्हें हरा दिया। अन्य मराठा राज्यों को बरकरार रहने दिया गया, मगर पेशवा वंश को समाप्त कर दिया गया।

इस प्रकार मुगल साम्राज्य को विभाजित करने और देश के बड़े हिस्सों में अपना साम्राज्य स्थापित करने का मराठों का सपना साकार नहीं हो सका।

इसका मूल कारण यह था कि मराठा साम्राज्य उसी पतनोन्मुख समाज-व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करता था जिसका मुगल साम्राज्य प्रतिनिधि था। दोनों एक ही प्रकार की अंतर्भूत कमजोरियों के शिकार थे। मराठा सरदार बहुत कुछ बाद के मुगल सामंतों की तरह थे और सरंजामी व्यवस्था, मुगल प्रणाली की जागीर व्यवस्था के समान थी। जब तक एक केंद्रीय सत्ता और एक सामूहिक शत्रु को भुनाने की आवश्यकता थी, तब तक मुगलों के विरुद्ध पारस्परिक सहयोग के साथ वे किसी न किसी रुप में एक-साथ सूत्रबद्ध रहे। किंतु कोई भी अवसर मिलते ही उन्होंने अपनी स्वायत्तता का दावा करने की कोशिश करते रहे।

चाहे जो भी हो वे मुगल सामंतों की अपेक्षा कम अनुशासित थे। मराठा सरदारों ने एक नई अर्थव्यवस्था विकसित करने का कोई प्रयत्न नहीं किया। वे विज्ञान और प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देने में असफल रहे। उन्होंने व्यापार और उद्योग में कोई दिलचस्पी नहीं ली। उनकी राजस्व प्रणाली और प्रशासन मुगलों के समान थे। मुगलों की तरह ही मराठा शासक भी लाचार किसानों से राजस्व वसूल करने में ही मुख्य रूप से दिलचस्पी रखते थे। उदाहरण के लिए उन्होंने भी आधा कृषि-उत्पादन कर के रूप में लिया। मुगलों के विपरीत वे महाराष्ट्र से बाहर की जनता को सही प्रशासन देने में भी विफल रहे। मुगलों की तुलना में वे भारतीय जनता में निष्ठा की भावना को बहुत अधिक नहीं जगा सके। उनका अधिकांश क्षेत्र भी केवल बल पर आधारित था। परन्तु उदीयमान ब्रिटिश सत्ता का मुकाबला करने में मराठा असफल रहे।

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