भारत में मोहम्मद गौरी के आक्रमण का इतिहास

मुईजुद्दीन मुहम्मद बिन साम, जिसे सामान्यतया मुहम्मद गोरी के नाम से जाना जाता है। उसके पिता का नाम बहाउद्दीन साम था। वह ‘गोर’ प्रदेश के शंसबानी वंश से सम्बन्धित था। ‘गोर’ राज्य गज़नी और हेरात के मध्य पहाड़ियों पर स्थित था, जो आधुनिक अफ़गानिस्तान का पश्चिम-मध्य भाग था। 1009 ईस्वी में गज़नी के शासक महमूद गज़नवी ने ‘गोर’ प्रदेश पर विजय प्राप्त कर ली और इसकों अधीनस्थ साम्राज्यवादी राज्य बना दिया। 1030 ईस्वी में महमूद की मृत्यु के साथ ही गज़नवी साम्राज्य, उसके दुर्बल उत्तराधिकारियों के अधीन तेजी से विघटित होना प्रारम्भ हुआ। परिणामस्वरूप ख़्वारिज्मी और गोर दो नयी शक्तियों का उदय हुआ। जहां ख्वारिज्मी साम्राज्य का आधार इरान था, तो गोरी साम्राज्य का आधार उत्तरी पश्चिमी अफगानिस्तान बना। वस्तुतः 1173 ईस्वी मे गौर राज्य का शासक गयासुद्दीन महमूद ने गजनी पर आक्रमण किया और उस पर स्थायी रूप से अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। इसके बाद उसने मोहम्मद गौरी को वहां का शासक नियुक्त कर दिया। सर्वप्रथम मोहम्मद गौरी ने गजनी पर अपना राज्य सुदृढ़ किया और फिर भारत पर विजय का निश्चय किया।

मोहम्मद गौरी के आक्रमणों का मूल उद्देश्य वही था जो गजनी का था। यानि धन प्राप्त करना, परन्तु गौरी ने धन प्राप्त करने के लिए स्थायी शासन स्थापित करने की योजना बनाई। इसके अतिरिक्त मोहम्मद गौरी के आक्रमण का कारण उत्तर भारत की राजनीतिक दशा का उसके अनुकूल होना था आक्रमण के लिए उसे जयचन्द का आमंत्रण भी मिल चुका था। पंजाब को वह अपना प्रदेश समझता था, क्योंकि वह किसी समय गजनी शासन के नियंत्रण मे था। और साथ ही भारत पर आक्रमण से उसे साम्राज्य निर्माण, सैनिक यश, धन संचय और शक्ति प्राप्त करना था। वस्तुतः इन्ही कारणों से उसने भारत पर आक्रमण किया।

शिहाबुद्दीन मुहम्मद गौरी का प्रथम आक्रमण 1175 ईस्वी मे हुआ था। इसके बाद वह 1205 ईस्वी तक लगातार भारत पर आक्रमण करता रहा। गौरी ने सबसे पहले 1175-76 मे मुल्तान और कच्छ पर आक्रमण किया और आसानी से विजय प्राप्त कर ली। मुल्तान और कच्छ पर अधिकार करने के लिए मुहम्मद गोरी ने 1178 ई० में राजस्थान की मरुभूमि को पार करता हुआ गुजरात में प्रवेश करने का प्रयास किया लेकिन गुजरात के शासक भीम द्वितीय ने आबू पर्वत के निकट हुए युद्ध में मुहम्मद गोरी को बुरी तरह पराजित किया। मुहम्मद गोरी किसी तरह जान बचाकर अपनी सेना सहित गुजरात से भाग निकला। इसके बाद गौरी ने 1179 से 1182 ईस्वी के बीच पेशावर और लाहौर पर सफल आक्रमण किया। संभवतः उस समय पंजाब पर गजनी वंश का शासन था। परंतु वह पेशावर को नही बचा पाए। इससे पंजाब विजय का मार्ग प्रशस्त हो गया। यहाँ से गौरी संधि करके वापस चला गया। मोहम्मद गौरी ने 1185-86 मे पुनः पंजाब पर आक्रमण किया और अंतिम रूप से जीत हासिल की। उस समय पंजाब पर गजनी शासक खुसरो मलिक शासन कर रहा था।

तराइन का प्रथम युद्ध

पंजाब की विजय से मोहम्मद गौरी के राज्य की सीमाएं अजमेर व दिल्ली के राजा पृथ्वीराज चौहान के राज्य से मिलने लगी। वस्तुतः 1189 ईस्वी मे मोहम्मद गौरी के भटिंडा पर आक्रमण से पृथ्वीराज चौहान चिंतित हुआ। क्योंकि यह राज्य चौहान की सीमा मे आता था। मोहम्मद गौरी भटिण्डा को आसानी से जीत कर वापस चला गया। जब पृथ्वीराज चौहान को यह सूचना मिली, तो भटिण्डा को पुनः हस्तगत करने के लिए सैनिक घेरा डाल दिया। मुहम्मद गौरी के आक्रमण का मुकाबला करने के लिए 100 राजपूतों राजाओं ने पृथ्वीराज की अधीनता मे एक संघ बनाया। 1191 ईस्वी मे थानेश्वर से 14 मील दूर तराइन के मैदान मे दोनो सेनाओं मे मुठभेड़ हुई। इस युद्ध मे मोहम्मद गौरी की पराजय हुई।

मिनहाज-उस-सिराज ने इस घटना का वर्णन इन शब्दों मे किया है- ” सुल्तान ने अपने घोड़े का मुँह घुमाया और भाग चला। घाव की पीड़ा से वह घोड़े पर न चल सका। इस्लामी सेनाओं की पराजय हुई और उनकी अपार क्षति हुई…. सुल्तान घोड़े से गिरा जा रहा था उसे देखकर एक शेरदिल योद्धा, एक खिलजी नवयुवक ने उसे पहचान लिया, उसको अपनी बाहों मे थाम कर घोड़े को ललकारा और रणभूमि से उसको बाहर ले गया।”

इसके बाद पृथ्वीराज 13 माह तक भटिण्डा के किले का घेरा डाले रहा तब कहीं उसे मुक्त करा सका। इस युद्ध की विजय भारत के लिए गौरव की बात थी। लेकिन पृथ्वीराज की उदारता तथा अदूरदर्शिता उसे महँगी पड़ी। इस बीच गौरी ने अपनी हार का बदला लेने की तैयारी की, और पुनः आक्रमण किया।

द्वितीय तराईन युद्ध

मोहम्मद गौरी अपनी हार और अपमान से बौखलाया हुआ था। अब उसने पहले से अधिक तैयारी के साथ सेना को लेकर 1192 ईस्वी मे बदला लेने के लिये और मुस्लिम क्षेत्रों को पाने के लिए आक्रमण की योजना बनाई। उसने इस युद्ध मे छल की नीति का पालन किया।

ताजुल मासिर के लेखक हसन निजामी के अनुसार जब गौरी सुल्तान लाहौर पहुँचा। तो उसने चौहान नरेश के पास एक दूत से संदेश भिजवाया। कि युद्ध से बचने के लिए वह इस्लाम और सुल्तान की अधीनता स्वीकार कर ले। पृथ्वीराज ने प्रत्युत्तर मे कहलवाया कि राजपूत पलायन करती हुई सेना को अभयदान देने के अभ्यस्त है, यदि सेना और अपने प्राणो की रक्षा करना हो तो गौरी को वापस हो जाना चाहिए।

पृथ्वीराज इस चालाकी को समझ नही पाया। इस संदेश की आड़ मे गौरी तराइन तक पहुँच गया। जब वह युद्ध के लिये तराईन पहुँचा तो गौरी मोर्चा जमा चुका था। सामान्यतः गौरी के सामने हाथी, उसके आगे रिजर्व सेना, उसके आगे घुड़सवार और सबसे आगे बायें, दायें, मध्य भाग मे बंटे सैनिक थे। इसके अतिरिक्त युद्धस्थल में राजपूतों के बायें दायें अश्वारोही सैनिक, न दिखने वाली दूरी पर थे।

राजपूत बिना रिजर्व सेना के बायें-दाये और मध्य मे बंटे पैदल सैनिकों के व्यूह मे लड़ने के लिए आगे बढ़े। यद्यपि पृथ्वीराज के साथ कुछ अन्य राजपूत राजा साथ थे, परन्तु अन्त मे पृथ्वीराज की पराजय हुई और उसे बन्दी बनाकर गजनी ले जाया गया और उसे अन्धा कर दिया गया।

कन्नौज पर आक्रमण

उस समय कन्नौज मे गहड़वाल वंश का राजा जयचंद राज करता था। 1194 ईस्वी मे मोहम्मद गौरी ने कन्नौज पर आक्रमण कर दिया। परिणाम स्वरूप राजा जयचंद अपने सैनिक लाव लश्कर के साथ चंदावर नामक स्थान पर युद्ध के लिए पहुंचे। जहां दोनो सेनाओं के बीच युद्ध हुआ। जिसमे मोहम्मद गौरी हारने वाला ही था कि अचानक जयचंद को एक तीर लगा और उसकी वही मृत्यु हो गई। जयचंद की सेना भाग खड़ी हुई। और इस प्रकार कन्नौज पर गौरी का अधिकार हो गया।

बयाना, गवालियर और गुजरात पर अधिकार

गौरी ने 1195-96 ईस्वी मे बयाना और ग्वालियर पर अधिकार किया। 1197 ईस्वी मे उसने गुजरात पर आक्रमण किया तथा चालुक्य राजा भीम द्वितीय की राजधानी अन्हिलवाड़ा पर अधिकार कर लिया। परन्तु 1201 ईस्वी मे भीम ने पुनः गुजरात पर अधिकार कर लिया।

मोहम्मद गौरी की मृत्यु

डाॅ. संजीव जैन ने अपनी पुस्तक मे मोहम्मद गौरी की मृत्यु के बारे मे लिखा है कि मुहम्मद गौरी जब अपने शिविर मे सांय कालीन नमाज अदा कर रहा था तभी चुपके से कुछ विद्रोहियों ने उसका वध कर दिया। 15 मार्च 1206 ईस्वी को मोहम्मद गौरी की मृत्यु हो गुई।

मोहम्मद गौरी के आक्रमणों का प्रभाव यह हुआ कि भारत मे तुर्की शासन की सत्ता काबिज हो गई। पृथ्वीराज चौहान की पराजय के कारण दिल्ली पर इस्लामी सत्ता स्थापित हो गई। भारतीय राजपूतों की शक्ति, वीरता तथा बुद्धि की पोल खुल गई। पहले ही ख्वारिज्म के शाह से पराजित निर्बल सुल्तान गौरी से राजपूत पराजित हुए थे और अब उनके सामान्य सैनिक और गुलाम राजपूतों से लोहा ले रहे थे। इसका अर्थ यही है कि राजपूत शक्तियाँ अत्यंत कमजोर और भ्रम मे थी उन्हें अपनी शक्ति पर मिथ्या अभिमान था।

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