नवीं से बारहवीं शताब्दी तक चोल शासकों का राजनैतिक वर्चस्व बना रहा। इन्होंने न सिर्फ एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया बल्कि शक्तिशाली नौसेना भी गठित की, जिससे बाह्य देशों , जैसे “श्री लंका आदि” पर भी अपना नियंत्रण स्थापित किया और साथ ही साथ उन्होंने हिंद महासागर क्षेत्र में भारत के समुद्री व्यापार का मार्ग प्रशस्त किया। चोल साम्राज्य को मध्यकालीन दक्षिण भारतीय इतिहास की चरम परिणीत कहा जाय तो यह अतिशयोक्ति नहीं है।
चोल दक्षिण भारत में पल्लवों के अधीनस्थ सांमतों के रूप में कार्यरत थे। 850 ईस्वी में विजयालय ने तंजौर पर कब्ज़ा कर चोल राजवंश की स्थापना की थी। तत्पश्चात उसने परकेसरी की उपाधि धारण की। उसने पल्लव एवं पाण्ड्य शासकों के बीच संघर्ष का लाभ उठाकर अपनी स्थिति मजबूत की। विजयालय के उत्तराधिकारी एवं उसके पुत्र आदित्य प्रथम ने पल्लव शासक अपराजित को 890 ईस्वी के युद्ध में हराकर मार डाला। उसी ने पाण्ड्य अर्थात मदुरा और गंग अर्थात कलिंग शासकों को हराकर अपने साम्राज्य को और अधिक सुदृढ़ किया। इसके उत्तराधिकारी अर्थात 907 से 953 ईस्वी के दौरान परांतक प्रथम ने साम्राज्य विस्तार को और विस्तृत किया तथा 915 ईस्वी में उसने श्रीलंका की सेना को वेल्लूर के युद्ध में पराजित किया। किन्तु इस समय राष्ट्रकूट शासन भी शक्तिशाली थे। राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय ने 949 ईस्वी में तक्कोलम के युद्ध में चोल सेना को पराजित किया। 953 ईस्वी में परांतक प्रथम की मृत्यु हो गई।
965 ईस्वी में राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय की मृत्यु के उपरांत राष्ट्रकूट साम्राज्य का विघटन होना शुरू हुआ। चोल शक्ति का पुनः जीर्णोधार 985 ईस्वी में राजराज प्रथम के आधीन आरंभ हुआ। उसके अनेक विजयों के पश्चात एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया। 994 ईस्वी से 1002 के मध्य उसने सैनिक अभियान किये तथा उसने चेर, पाण्ड्य, चालुक्य अर्थात पूर्वी व पश्चिमी दोनों को तथा कलिंग के गंग शासकों को पराजित किया। 1004 ईस्वी से 1012 ईस्वी के मध्य नौसैनिक अभियान के क्रम में उसने अनुराधापुर अर्थात श्रीलंका के उत्तरी क्षेत्र पर नियंत्रण स्थापित कर लिया और उसका नाम मुम्मडी चोलमंडलम रखा। उसने मालदीप पर भी विजय प्राप्त की। इन सभी विजयों की जानकारी तंजौर एवं तिरुवलंगाडु अभिलेखों से प्राप्त हुई है।
1014 ईस्वी से 1044 ईस्वी के दौरान राजराज प्रथम का उत्तराधिकारी एवं उसका पुत्र राजेन्द्र प्रथम गद्दीसिन हुआ। राजराज प्रथम की विस्तारवादी नीति को आगे बढ़ाते हुए राजेन्द्र प्रथम ने पांड्य और चेर राजवंश का पूर्णत: उन्मूलन करके अपने साम्राज्य में मिला लिया। उसने 1017 ईस्वी में अनुराधापुर के दक्षिणी क्षेत्र को जीतकर इस भाग को पूर्णतः अपने साम्राज्य में मिला लिया। इन सैनिक कार्यवाहियों का उद्देश्य अंशत: यह था कि दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ होने वाले व्यापार पर नियंत्रण स्थापित किया जा सके। क्योंकि कोरोमंडल तट व मालाबार तट दक्षिण- पूर्व एशियाई देशों के साथ भारत के व्यापार के मुख्य केन्द्र थे। 1022 से लेकर 1023 के बीच उसने बंगाल पर सफल सैनिक अभियान किया और महिपाल को पराजित किया। इसी अवसर पर उसने ‘गंगैकोंडचोलपुरम’ की उपाधि धारण की तथा तंजोर के नजदीक गंगैकोंडचोलपुरम को राजधानी बनाया। राजेन्द्र प्रथम की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विजय 1025 ईस्वी में श्री विजय की थी। उसने श्री विजय के शासन संग्राम विजयोत्तुंगवर्मन को पराजित कर अपनी संप्रभुता उस पर स्थापित की थी।
चोल काल का अगला शासक राजाधिराज, अपने राज्यकाल अर्थात 1004 से 1052 ईस्वी के बीच अनेक विद्रोहों और उपद्रवों से परेशान था। उसने अनुराधापुर अर्थात श्रीलंका में हुए विद्रोह का दमन किया। कोपंन्न के युद्ध में उसने चालुक्य शासक सोमेश्वर को हराकर उसकी शक्ति को कमजोर किया। किंतु इसी युद्ध में उसकी मृत्यु हो गयीं। इसके पहले अपनी सैनिक सफलताओ के उपलक्ष्य में अश्वमेघ यज्ञ किया और “जयगोंडचोल” की उपाधि धारण की। राजधिराज का अगला उत्तराधिकारी, अर्थात उसका भाई राजेन्द्र द्रितीय ने रणभूमि में ही अपना राज्याभिषेक कराया और युद्ध में सफलता प्राप्त की। इसके पश्चात वीर राजेन्द्र 1063 से 1070 ईस्वी के बीच शासक बना। उसने विक्रमादित्य के साथ अपनी पुत्री का विवाह किया तथा दोनों में मैत्रीपूर्ण संबंध बन गये। वीर राजेन्द्र के उत्तराधिकारी अधिराजेन्द्र को जनता ने उसके राज्यारोहण के पश्चात तुरंत राजगद्दी से हटा दिया।
लगभग 1070 ईस्वी में कुलोतुंग प्रथम शासक बना। जिनके पिता चालुक्य वंश के शासक विमलादित्य थे और माँ चोल राजकुमारी थी। अब चोल और चालुक्य वंश एक हो गये। इसने युद्धनीति त्याग कर जनकल्याणकारी कार्य किया। 1077 ईस्वी में इसने चीन के सम्राट के समक्ष अपना दूत भेजकर व्यापारिक संबंधो को सुदृढ़ बनाने का प्रयास किया। इसके पश्चात के उत्तराधिकारियों में विक्रमचोल (1120 से 1135 ईस्वी), कुलोतुंग तृतीय (1135 से 1150 ईस्वी), राजराज प्रथम तृतीय (1210 से 1250 ईस्वी) और राजेन्द्र तृतीय (1250 से 1267 ईस्वी) शामिल है। वस्तुतः राजेन्द्र तृतीय की मृत्यु के बाद चोल वंश का इतिहास समाप्त हो गया।
चोल साम्राज्य के पतन का प्रमुख कारण लगातार युद्ध और संघर्ष था। जिसने राज्य के आर्थिक और सैनिक संसाधनों का ह्रास किया। परवर्ती चोल शासकों की कमजोरी और नये राज्यों, विशेषकर पांड्य एवं होयसल वंशो के उत्कर्ष और उनके द्वारा चोल राज्य के क्षेत्रों पर आक्रमण ने भी साम्राज्य को बहुत ज्यादा कमजोर किया।







