जिस समय मगध के नेतृत्व में पूर्वी भारत में एकीकरण की प्रक्रिया चल रही थी,लगभग उसी समय पश्चिमोत्तर भारत में विकेंद्रीकरण और राजनीतिक अराजकता का बोल-बाला था।सम्पूर्ण पश्चिमोत्तर क्षेत्र अनेक छोटे-छोटे राज्यों में बंटा हुआ था, और ये राज्य अपनी स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए आतुर थे। सभी राज्यों में परस्पर संघर्ष चलता रहता था। इस क्षेत्र में कोई ऐसी राजनीतिक शक्ति नही थी जो अपने प्रभाव क्षेत्र का विस्तार करके इन संघर्षरत राज्यों को एकछत्र शासन के अंतर्गत संगठित कर सके।यही कारण है कि, आर्थिक रूप से समृद्ध इस क्षेत्र की राजनीतिक दुर्बलता और अराजकता ने विदेशी आक्रमणकारियों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए प्रोत्साहित किया। फलस्वरूप भारत को समय-समय पर दो विदेशी आक्रमणों का शिकार होना पड़ा। इनमे से पहला ईरानी हखमनी साम्राज्य का, और दूसरा मकदूनिया के सिकंदर महान का आक्रमण था।
छठी शदी ईसा पूर्व में भारत पर पहला ईरानी आक्रमण हखमनी साम्राज्य के संस्थापक साइरस द्वितीय या कुरुष ने लगभग 550 ईसा पूर्व में किया, उसने मकरान तट से होकर भारत पर आक्रमण किया। परंतु उसे सिंधु के आसपास के राज्यों से अत्यंत कठोर प्रतिरोध का सामना करना पड़ा।मार्ग में उसकी सेना नष्ट हो गई और इसे जान बचाकर अपने 7 सैनिकों के साथ भागना पड़ा। इस प्रकार साइरस द्वितीय भारत पर आक्रमण करने में सफल नही रहा। लेकिन इसके विपरीत वह अपनी इस असफलता से निराश नही हुआ। उसने दूसरी बार काबुल घाटी की तरफ से भारत पर आक्रमण किया।जिसमे उसे कुछ सफलता मिली। एक तरफ रोमन लेखक प्लिनी के अनुसार “साइरस द्वितीय” ने कपिशा नगर को बर्बाद किया। तो दूसरी तरफ जेनोफोन ने भी साइरस के जीवनी-ग्रंथ साइरोपीडिया में लिखा है कि उसने बैक्ट्रिया और भारत को जीत कर अपना प्रभाव हिन्द महासागर तक विस्तृत कर लिया। इससे यह प्रमाणित होता है कि
काबुल घाटी पर साइरस द्वितीय का अधिकार था। इसके अलावा एक अन्य इतिहासकार एडवर्ड मेयर के कथनानुसार साइरस द्वितीय ने हिंदुकुश और काबुल घाटी,विशेष रूप से गांधार की भारतीय जनजातियों को जीता था। जबकि एक अन्य हखमनी शाशक “दारा प्रथम” स्वयं सिंधु नदी तक आया था।
साइरस की मृत्यु के बाद उसका पुत्र केम्बसिज या कंबुजीय हखमनी साम्राज्य का उत्तराधिकारी बना। लेकिन वह अपने साम्राज्य के आंतरिक मामलों में ही उलझा रहा,जिसके कारण उसको भारत की ओर सोचने-समझने का अवसर नही मिल सका।
भारत पर दूसरा ईरानी आक्रमण विस्तास्प के पुत्र “दारा प्रथम” या “डेरियस प्रथम” द्वारा 521ईसा पूर्व से लेकर 485 ईसा पूर्व के आस-पास प्राप्त होता है। जिसके साक्ष्य हमें बेहिस्तून के शिलालेख से मिलता है। जिसमे वर्णित है कि दारा प्रथम के शासन के अधीन कुल 23 प्रान्त थे। जिसमे ‘शतगु’ और ‘गदर’ के नाम तो मिलते है,परंतु भारत का नाम नही है। लेकिन पर्सीपोलस और नक्श-ए-रुस्तम लेखों में हमें शतग और गदर के साथ हिदु शब्द का उल्लेख हखमनी साम्राज्य के प्रान्त के रूप में प्राप्त होता है। इससे स्पष्ट है कि शतगु, गदर और हिदु दारा के साम्राज्य में शामिल थे। जो उसके साम्राज्य के पूर्वी सीमा पर सिंधु घाटी में स्थित थे। जंहा शतगु से तात्पर्य शप्तसैंधव प्रदेश से है तो गदर से आशय गांधार प्रदेश से और हिदु का अर्थ निचली सिंधु घाटी से है। इससे स्पष्ट होता है कि दारा ने 518 ईसा पूर्व के आस-पास पश्चिमोत्तर भारत के इन प्रदेशो को जीत लिया था।
यूनानी इतिहासकार हेरोडोटस के विवरण से ज्ञात होता है कि भारत दारा के साम्राज्य का 20वां प्रान्त था।इस समृद्ध प्रदेश से दारा को उसके सम्पूर्ण राजस्व का एक तिहाई भाग अर्थात 360 टैलेंट सोना कर के रूप में प्राप्त होता था। हेरोडेटस के अनुसार दारा ने 517 ईसा पूर्व में अपने नौसेनाध्यक्ष स्काइलैक्स के नेतृत्व में एक जहाजी बेड़ा सिंधु नदी के मार्ग का पता लगाने के लिए भेजा था सम्भवतः यह हो सकता है कि इसी बेड़े की सहायता से दारा ने भारतीय क्षेत्रों पर अधिकार किया हो।
इस प्रकार दारा की विजयों ने समस्त सिंधु घाटी को एकता के सूत्र में आबद्ध कर भारत का सम्पर्क पश्चमी दुनिया से जोड़ दिया। उसके उत्तराधिकारियों ने अपने साम्राज्य की पूर्वी सीमा को इससे आगे बढ़ाने का कोई प्रयास नही किया। ऐसा लगता है कि वो दारा द्वारा जीते गए प्रदेशो को सुरक्षित करने में लगे रहे।
दारा की मृत्यु के बाद उसका पुत्र जरक्सीज या क्षहयार्ष राजगद्दी पर बैठा। उसके शासन काल में यूनानीयों ने आक्रमण किया था। परन्तु इस आक्रमण के समय उसकी तरफ से थर्मोपल्ली के युद्ध में भारतीय योद्धाओं ने युद्ध में भाग लेकर मदद की थी। हेरोडेटस ने भारतीय सैनिकों की वेश-भूषा के सम्बंध में लिखते हुए कहते है कि सैनिकों के वस्त्र सूती थे और इनके कंधो पर तीर और धनुष लटक रहे थे। परन्तु यह क्षहयार्ष का दुर्भाग्य था कि वह अपने ही अंगरक्षकों के हांथो 465 ईसा पूर्व में मार दिया गया।
क्षहयार्ष की मृत्यु के बाद उनके बेटे अर्तजरक्सीज प्रथम और फिर अर्तजरक्सीज द्वितीय उत्तराधिकारी हुए।जबकि इस साम्राज्य का अंतिम शासक दारा तृतीय था।जो सिकन्दर के विरुद्ध गागामेला के युद्ध में सिंधु के पूर्वी व पश्चमी क्षेत्र के सैनिकों की सहायता प्राप्त करने के बावजूद हार गया। सिकन्दर द्वारा हखमनी साम्राज्य पर अधिकार कर लेने और दारा तृतीय की हत्या के बाद ही भारतीय क्षेत्र हखमनी साम्राज्य से आजाद हुए होंगे।
यद्यपि पश्चिमोत्तर भारत के कुछ ही प्रदेश हखमनी साम्राज्य के अधीन हुए थे।लेकिन इसमें संदेह नही की इसने भारतीय इतिहास को विविध रूपों में प्रभावित किया। भारत के पश्चमी सीमावर्ती बिखरे प्रदेशों को पहली बार हखमनियो ने ही व्यवस्थित किया, जिसके बाद भारतीय शासकों को पश्चिमोत्तर भारत को संगठित करने में सहायता मिली ,और साथ ही ईरानियों के आक्रमण के पश्चात उनके दिखाए मार्ग से विभिन्न जातियों ने भारत पर आक्रमण किया, जिनमें यूनानी प्रमुख थे। जिसकी चर्चा हम अपने अगले एपिसोड में करेंगे। यूनानियों के पश्चात बाख्त्री,शक और पल्हव आदि ने भी भारत पर आक्रमण किए।
इस क्रम में ईरानियों के आक्रमण का प्रभाव भारत पर सांस्कृतिक और राजनैतिक दोनों रूपों में दिखाई देता है। भारत पर आक्रमण करने के पश्चात खरोष्ठी लिपि का भारत में प्रचार-प्रसार हुआ। खरोष्ठी लिपि मूल भारतीय लिपि जैसे प्राकृत और ब्राम्ही लिपि से भिन्न व ईरानी अरेमाइक के समान थी और यह दायें से बायें की तरफ लिखी जाती थी। ईरानी आधिपत्य से विदेशियों का रक्त मिश्रण भारतीयों के साथ हुआ। बहुत से विदेशी भारत में आकर बस गए। कुछ पूर्ण भारतीय बन गए, तो कुछ अपने मूल देश के व्यक्तियों के साथ सद्भावना का विचार रखते हुए यंही बस गए और जरूरत पड़ने पर अपने देश के शासकों की तरफ से युद्ध करने के लिए तत्पर रहते थे।
हखमनी साम्राज्य से सम्बंध होने से भारत के विदेशी व्यापार को बढ़ावा मिला।अब भारतीय व्यापारी पश्चमी देशों में जाने लगें और अपने सामानों को सुदूर मिश्र और यूनान तक पहुंचाने लगे। जिसका प्रमाण हमें भारत के पश्चिमोत्तर क्षेत्रों से प्राप्त हुए सामान्य ईरानी मुद्रा डारिक और रजत एवं सिग्लोयी या शेकेल के रूप में प्राप्त होता है।
मौर्य काल के विभिन्न तत्वों में हखमनी साम्राज्य के प्रभावों को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है जैसे- दरबारी शानो-शौकत, चंद्रगुप्त मौर्य के विशाल स्तंभों वाले राजप्रासाद के स्तम्भ-मंडप, अशोक द्वारा शिलालेखों पर शासनादेश खुदवाने की शैली और मौर्ययुगीन स्तंभों पर घंटाशिर्ष की कल्पना व चमकदार पालिश इत्यादि।
हखमनी शासक अपने साम्राज्य को प्रशासनिक व्यवस्था के लिए प्रान्तों या क्षत्रपों में बांटते थे,जो मौर्य काल मे भी दिखाई देती है। अतः हम कह सकते है कि ईरानी प्रभाव के कारण ही कालांतर में पश्चिमोत्तर भारत में प्रांतीय शासन प्रणाली का विकास हुआ। इस प्रकार ईरानी आक्रमण ने अप्रत्यक्ष रूप से ही सही,लेकिन भारत को प्रभावित किया।






