मध्यकालीन भारत में मुस्लिम आक्रमणकारीयो के समय भारत में एक बार फिर से विकेन्द्रीकरण व विभाजन की परिस्थितियाँ सक्रिय हो उठी थीं। इस समय देश की स्थिति वैसी ही थी जैसी कि किसी भी शक्तिशाली साम्राज्य के पतन के बाद हो जाती है। स्वदेशी शक्तियों के साथ ही साथ मुल्तान और सिन्ध के भागों में दो विदेशी राज्य भी स्थापित हो चुके थे। वस्तुतः सम्पूर्ण देश अनेक छोटे-बड़े राज्यों में विभक्त था, जो एक दूसरे के मूल्य पर अपनी शक्ति एवं साम्राज्य का विस्तार करना चाहते थे।
यद्यपि आठवीं शताब्दी के शुरुवाती दौर में मुहम्मद-बिन-कासिम के नेतृत्व में सिन्ध पर जो अरब-आक्रमण हुआ था उसका कोई स्थायी परिणाम नहीं हुआ। अरबों का राज्य, सिन्ध और मुल्तान के पूर्व में नहीं फैल सका तथा उनकी शक्ति शीघ्र ही क्षीण हो गई। उनके इस अधूरे कार्य को तुर्कों ने पूरा किया।
तुर्क, चीन की उत्तरी-पश्चिमी सीमाओं पर निवास करने वाली एक असभ्य एवं बर्बर जाति थी। जब अरब के उमैयावंशी शासकों ने इस्लाम धर्म का प्रचार मध्य एशिया की ओर किया, तो तुर्क भी इस्लाम धर्म के सम्पर्क में आ गए। तो उन्होंने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया तथा इसका प्रचार पूरे जोर-शोर के साथ करने में जुट गये। उनका उद्देश्य एक विशाल मुस्लिम-साम्राज्य स्थापित करना था। वे अत्यन्त खूँखार एवं लड़ाकू होते थे।
भारत में सबसे पहले जो तुर्क आक्रमणकारी आये, वे गजनी के शासक-कुल अर्थात यामिनी वंश से सम्बन्धित थे। 962 ईस्वी में अलप्तगीन नामक एक महत्वाकांक्षी व्यक्ति ने गजनी में एक स्वतन्त्र तुर्की राज्य की स्थापना की। लेकिन 977 ईस्वी में उसके दामाद सुबुक्तगीन ने गजनी पर अधिकार कर लिया।
वह एक शक्तिशाली शासक था जो भारत पर आक्रमण की योजनायें तैयार करने लगा। पंजाब के हिन्दू शासक जयपाल ने उसकी योजनाओं को प्रारम्भ में ही विफल कर देने के उद्देश्य से 986 से लेकर 87 ईस्वी में एक बड़ी सेना के साथ गजनवी पर आक्रमण कर दिया।
कई दिनों तक भीषण युद्ध चलता रहा तथा किसी भी पक्ष की विजय न हो सकी। परन्तु दुर्भाग्यवश भारी वर्षा व हिमपात से भारतीय सैनिकों का उत्साह भंग हो गया। फलस्वरूप जयपाल को अत्यन्त अपमानजनक सन्धि करनी पड़ी। इस सन्धि के तहत् जयपाल ने सुबुक्तगीन को 50 हाथी और कुछ प्रदेश देने का वचन दिया। परन्तु लाहौर पहुँचकर उसने सन्धि की अपमानपूर्ण शर्त को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। इस क्रम में सुबुक्तगीन ने उसके राज्य पर आक्रमण कर लूट-पाट की।
वस्तुतः जयपाल ने 991 ईस्वी में कुछ मित्र राजाओं की सहायता से गजनी पर पुनः आक्रमण किया किन्तु युद्ध में सुबुक्तगीन की ही विजय हुई। इस विजय के फलस्वरूप सुबुक्तगीन ने पेशावर तक के भूभाग पर अपना अधिकार कर लिया। 997 ईस्वी में सुबुक्तगीन की मृत्यु हो गयी।
सुबुक्तगीन की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र महमूद 998 ईस्वी में गजनी का राजा बना। राज्यारोहण के समय उसकी अवस्था 27 वर्ष की थी। वह अत्यन्त महत्वाकांक्षी युवक था। कहा जाता है कि बगदाद के खलीफा से ‘यमिनुद्दौला’ तथा ‘अमीन-उल-मिल्लाह’ का सम्मानित पद प्राप्त करते समय उसने यह प्रतिज्ञा की थी। कि वह प्रतिवर्ष भारत पर एक आक्रमण करेगा।
जबकि मध्य एशिया में अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिये उसे धन की भी आवश्यकता थी जो भारत में आसानी से प्राप्त हो सकता था। अतः इस्लाम धर्म के प्रचार और धन प्राप्त करने की लालसा से उसने भारत पर 17 बार आक्रमण किये।
इस क्रम में महमूद का प्रथम भारतीय आक्रमण पश्चिमोत्तर भारत के शाही राजा जयपाल पर 1001 ईस्वी में हुआ। पेशावर में दोनों के बीच एक घमासान युद्ध हुआ, जिसमें जयपाल की पराजय हुई।
उसने महमूद को भारी हर्जाने कीं रकम तथा 50 हाथी देने का वचन दिया। महमूद उसकी राजधानी उदभाण्डपुर को लूटने के बाद अतुल्य सम्पत्ति लेकर गजनी वापस लौट गया। जयपाल इस पराभव को सहन नहीं कर सका तथा उसने आत्महत्या कर ली। और पश्चिमी पंजाब व लाहौर पर महमूद का अधिकार हो गया। जयपाल के बाद आनन्दपाल तथा फिर त्रिलोचनपाल शाहिया वंश के शासक हुए। आनन्दपाल तथा महमूद की सेनाओं के बीच दो बार युद्ध हुए और दोनों ही बार महमूद की विजय हुई। सर्वप्रथम 1009 ईस्वी के लगभग महमूद ने आनन्दपाल की सेनाओं को वैहन्द के मैदान में पराजित किया ।
आनन्दपाल ने भागकर नगरकोट के दुर्ग में शरण ली। महमूद ने दुर्ग की घेरावन्दी की तथा तीन दिन के भयंकर युद्ध के पश्चात् वहीं अपना अधिकार कर लिया। इस प्रकार सिन्ध से लेकर नगरकोट तक का समस्त प्रदेश उसके अधिकार में आ गया।
उतबी के विवरण से पता चलता है कि नगरकोट की लूट में महमूद को इतना धन मिला कि जितने भी ऊँट मिले उन सब पर, उसे लाद दिया गया, फिर भी धन शेष रहा । इसे अधिकारियों में बाँट दिया गया। इसमें स्वर्ण सिक्के, सोना-चाँदी की बहुमूल्य वस्तुयें, मोती और सुन्दर वस्त्र आदि शामिल थे ।
आनन्दपाल ने नमक की पहाड़ियों के कोने में स्थित नन्दन को अपनी राजधानी बनायी । वहीं उसकी मृत्यु हो गयी । उसके पुत्र तथा उत्तराधिकारी त्रिलोचनपाल ने महमूद के विरुद्ध भारतीय राजाओं का एक संघ बनाया किन्तु 1018 ईस्वी में महमूद ने पुन इस संघ को परास्त कर दिया । और फिर 1021 ईस्वी में त्रिलोचनपाल की मृत्यु हो गयी तथा इसके बाद शाहियावंश का राज्य महमूद के कब्जे में चला गया । महमूद के आक्रमण का दूसरा शिकार मुल्तान का राज्य हुआ । यहाँ का राजा फतेह दाऊद, शिया मतावलम्बी था और इस कारण सुन्नी महमूद उससे चिढ़ता था।
1006 ईस्वी में उसने मुल्तान पर आक्रमण कर दाऊद को पराजित किया तथा अपनी ओर से सुखपाल को वहाँ का राजा बनाया। यह सुखपाल जयपाल की पुत्री का पुत्र था जो महमूद द्वारा बन्दी बनाकर गजनी ले जाया गया जहाँ उसने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था।
परन्तु सुखपाल ने इस्लाम का धर्म त्याग कर महमूद के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। फलस्वरूप 1008 ईस्वी में महमूद ने पुनः मुल्तान पर आक्रमण कर उसे बन्दी बना लिया तथा उस पर अपना अधिकार कर लिया । महमूद ने भटिण्डा के राजा विजयराय पर 1005 ईस्वी में आक्रमण किया ।
भटिण्डा में एक सुदृढ़ दुर्ग था जो पश्चिमोत्तर भारत से गंगा की उपजाऊ घाटी तक पहुंचने के मार्ग में पड़ता था । महमूद ने दुर्ग पर घेरा डाला । विजयराय ने बड़ी वीरतापूर्वक दुर्ग की रक्षा की परन्तु असफल रहा तथा भाग खड़ा हुआ। महमूद ने उस पर अधिकार कर लिया तथा नगर के निवासियों की या तो हत्या कर दी या उन्हें इस्लाम धर्म मानने को विवश किया । उसे अतुल्य सम्पत्ति प्राप्त हुई।
1009 ईस्वी में महमूद ने अलवर स्थित नारायणपुर पर आक्रमण किया तथा उस पर अधिकार कर लिया । यह एक प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र था । 1014 ईस्वी में थानेश्वर के चक्रस्वामी के मन्दिर को तोड़ने के लिये उसने गजनी से प्रस्थान किया ।
यद्यपि थानेश्वर का शासक डरकर भाग गया तथा महमूद ने मनमाने ढंग से नगर की लूट-पाट की और चक्रस्वामी की मूर्ति को गजनी भेज दिया। तत्पश्चात उसने गंगा-यमुना के दोआब पर आक्रमण करने का निश्चय किया । 1018 ईस्वी में उसने मथुरा नगर पर धावा बोला।
यहाँ अनेक भव्य एवं प्रसिद्ध मन्दिर थे। महमूद ने अनेक भव्य मन्दिरों को ध्वस्त किया तथा लूट में अत्यधिक सम्पत्ति प्राप्त की । यहाँ से उसने कन्नौज को प्रस्थान किया । प्रतिहार शासक राज्यपाल भाग खड़ा हुआ तथा महमूद ने बड़ी आसानी से नगर पर अधिकार कर लिया। उसकी सेना ने नगर में जी भर कर लूट-पाट एवं कत्लेयाम किया ।
यहाँ से भी उसे बहुत बड़ी सम्पत्ति प्राप्त हुई । मथुरा तथा कन्नौज से अकूत सम्पत्ति लेकर वह गजनी लौट गया । कन्नौज नरेश राज्यपाल के व्यवहार ने हिन्दू राजाओं को क्रुद्ध कर दिया तथा उन्होंने चन्देल नरेश विद्याधर की अध्यक्षता में एक संघ बनाया ।
सर्वप्रथम इस संघ ने राज्यपाल पर आक्रमण कर उसकी हत्या कर दी तथा फिर महमूद के विरुद्ध शक्ति जुटाने में लग गया । इस संघ को भंग करने के उद्देश्य से 1019 ईस्वी के अन्त में महमूद ने पुनः गजनी से भारत को प्रस्थान किया । चन्देल नरेश एक बड़ी तथा शक्तिशाली सेना के साथ कालिंजर के पास उसका सामना करने के लिए उपस्थित था।
महमूद विशाल सेना देखकर घबरा गया तथा हतोत्साहित हो उठा किन्तु विद्याधर रातोंरात रहस्यमय ढंग से भाग निकला । महमूद ने नगर को खूब लूटा तथा भारी रकम लेकर स्वदेश लौट गया । इस प्रकार जिस कायरता के लिये विद्याधर ने पूर्व में प्रतिहार नरेश राज्यपाल को दण्डित किया था उसी का प्रदर्शन स्वयं उसी ने किया ।
1022 ईस्वी में चन्देलों की शक्ति को पूरी तरह कुचलने के उद्देश्य से महमूद ने पुन: कालिंजर पर आक्रमण किया । उसने दुर्ग का घेरा डाला । दीर्घकालीन घेरे के बाद भी जब उसे सफलता नहीं मिली तब उसने चन्देल नरेश से सन्धि कर ली ।
उसने महमूद को 300 हाथी उपहार में दिये जिन्हें लेकर वह गजनी लौट गया । विद्याधर ने महमूद की प्रशंसा में एक कविता लिखकर भेजी थी । इसे सुनकर वह इतना प्रसन्न हुआ कि उसने विद्याधर को पन्द्रह किलों का शासन सौंप दिया। महमूद गजनवी का सर्वप्रसिद्ध आक्रमण 1025-26 ईस्वी में सोमनाथ के प्रसिद्ध मन्दिर पर हुआ ।
यह मन्दिर काठियावाड़ में स्थित था। तथा समूचे भारत में अपनी पवित्रता, गौरव एवं समृद्धि के लिए विख्यात था । कहा जाता है कि यहाँ के हिन्दुओं में यह विश्वास था कि महमूद उत्तर भारत के बहुसंख्यक मन्दिर एवं मूर्तियों को तोड़ने में इस कारण सफल रहा कि भगवान सोमेश्वर उनसे अप्रसन्न थे । महमूद को जब यह ज्ञात हुआ तो उसने इस मन्दिर को नष्ट करने तथा मूर्ति को तोड़ने का निश्चय किया ।
वह मुल्तान से तीस हजार अश्वारोहियों तथा अन्य सैनिकों के साथ सोमनाथ के लिये कूच किया । रेगिस्तानी मार्ग में अत्यन्त सावधानी बरतते हुए जनवरी 1025 ईस्वी में वह अन्हिलवाड़ पहुंच गया । चालुक्य शासक भीम प्रथम अपने सहायकों के साथ राजधानी छोड़कर भाग गया । नगर को लूटते हुए महमूद ने सोमनाथ के गढ़ का घेरा डाल दिया ।
यहां के स्थानीय सेनानायक ने भाग कर समुद्र में एक नाव पर शरण ली तथा प्रतिरोध मुख्यतः ब्राह्मणों और पुजारियों द्वारा ही किया गया । महमूद बिना किसी कठिनाई के उसमें प्रवेश पाने में सफल रहा । उसने मन्दिर के 50 हजार पुजारियों तथा ब्राह्मणों के वध का आदेश दे दिया ।
भगवान सोमनाथ की मूर्ति को टुकड़े-टुकड़े कर दिया गया। तथा उसे गजनी, मक्का और मदीना की मस्जिदों की सीढ़ियों में चिनाई के निमित्त भेज दिया गया । महमूद को बहुत अधिक हीरे, जवाहरात तथा स्वर्णराशि लूट में प्राप्त हुई । यह धनराशि लगभग 20 लाख दीनार की थी । इसे लेकर वह गजनी लौटा ।
मार्ग में जाटों ने उसकी सेना पर आक्रमण किया तथा कुछ सम्पत्ति लूट लिया किन्तु महमूद सकुशल गजनी पहुँच गया । जाटों से बदला लेने के लिये उसने 1027 ईस्वी में पुन: सिन्ध पर आक्रमण किया । वे पराजित हुए तथा उनके नगर जला दिये गये । बहुतों को मौत के घाट उतार दिया गया । यह महमूद का अन्तिम भारतीय आक्रमण था । 1030 ईस्वी में उसकी मृत्यु हो गयी ।
निस्संदेह वह एक महान् विजेता तथा उच्च कोटि का सेनानायक था जिसने गजनी के छोटे से राज्य को विशाल साम्राज्य में बदल दिया । उसका उद्देश्य भारत में तुर्की राज्य स्थापित करना नहीं था, बल्कि वह तो मूर्तियों को नष्ट करने तथा सम्पत्ति प्राप्त करने की इच्छा से यहाँ आया था । उसे अपने दोनों उद्देश्यों में सफलता मिली ।
मुहम्मद हबीब का विचार है कि महमूद धर्मान्ध नहीं था। बल्कि भारत पर उसके आक्रमणों का उद्देश्य इस्लाम का प्रचार न होकर अधिकाधिक धन प्राप्त करने की लालसा थी। उसने सम्पत्ति लूटने के लिये ही बड़े-बडे आक्रमण किये।
हबीब के अनुसार इस्लामी कानून में कोई ऐसा सिद्धान्त नहीं है, जो विध्वंस के कार्य को न्यायसंगत माने अथवा उसे प्रोत्साहित करें। अतः महमूद ने भारत में बर्बरतापूर्ण कार्य करके इस्लाम का अहित ही किया था ।







