मराठा शक्ति का उदय एवम् पतन पार्ट-१

पतनोन्मुख मुगल सत्ता को सबसे महत्त्वपूर्ण चुनौती मराठा राज्य से मिली जो उत्तराधिकारी राज्यों में सबसे शक्तिशाली था। इतिहास के पन्नों को पलटने पर यही मालूम  पड़ता है कि,मुगल साम्राज्य के विघटन से उत्पन्न राजनीतिक रिक्तता को भरने की शक्ति केवल मराठो में थी। यही नहीं उसने इस रिक्तता को भरने के लिए यथासंभव कई प्रतिभाशाली सेनापतियों और राजनेताओं को पैदा किया।लेकिन मराठा सरदारों में एकता कि कमी के कारण उनमें एक अखिल भारतीय साम्राज्य बनाने के लिए आवश्यक दृष्टिकोण व कार्यक्रम नहीं था। इसलिए वे मुगलों की जगह लेने में असफल रहे। मगर जब तक उन्होंने मुगल साम्राज्य को खत्म नहीं किया तब तक वे उसके खिलाफ लगातार संघर्ष करते रहे।

मराठा संघ एवं मराठा साम्राज्य 18वी शताब्दी में उभरती हुई एक भारतीय शक्ति थी। जो भारतीय उपमहाद्वीप पर अपना प्रभुत्व जमाने के लिए लालायित था। इस साम्राज्य की शुरुवात सामान्यतः 1674 में छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक के साथ प्रारम्भ हुई, और अंत 1818 ईसवी में पेशवा बाजीराव द्वितीय की हार के साथ समाप्त हुआ।

मराठा साम्राज्य के संस्थापक शिवाजी थे। शिवाजी का जन्म 6अप्रैल, 1627 में शिवनेर दुर्ग में हुआ था। शिवाजी के पिता का नाम शाहजी भोसले और माता का नाम जीजाबाई था। शिवाजी ने गंगाभट्ट नामक प्रसिद्ध विद्वान से अपना राज्यभिषेक करवाया और छत्रपति की उपाधि धारण की। शिवाजी ने रायगढ़ को मराठों की राजधानी बनाया।और मुगलो की कैद से उन्होंने लाखो मराठाओ को आज़ादी दिलवाई। 1665 ईसवी में शिवाजी और जयसिंह के बीच युद्ध हुआ परिणामस्वरूप पुरंदर की संधि के साथ युद्ध की समाप्ति हुई।

शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित मराठा साम्राज्य ने भारतीय उपमहाद्वीप के लगभग 4.1% भाग पर अपना प्रभुत्व जमा लिया था लेकिन इसके बाद भी शिवाजी महाराज तेजी से अपने साम्राज्य का विस्तार कर रहे थे। शिवाजी का अंतिम महत्वपूर्ण सैन्य अभियान 1677 में कर्नाटक अभियान था।

शिवाजी महाराज के दो बेटे थे। जिनके नाम है, संभाजी और राजाराम। जहां संभाजी महाराज उनका बड़ा बेटा था, जो दरबारियों के बीच काफी प्रसिद्ध था। 1681 में संभाजी महाराज ने मराठा साम्राज्य का ताज पहना और अपने पिता की नीतियों को अपनाकर वे उन्ही की राह में आगे बढ़ गए। संभाजी महाराज ने सर्वप्रथम पुर्तगिज और मैसूर के चिक्का देवराय को पराजित किया।

तत्पश्चात मुगलों के खिलाफ किसी भी राजपूत-मराठा गठबंधन को तोड़ने के लिए 1681 ईसवी में औरंगजेब ने स्वयं दक्षिण की कमान अपने हाथ में ले ली। लेकिन इन सब से बेखबर संभाजी 5 लाख की विशाल सेना के साथ मराठा साम्राज्य के विस्तार के लिए बीजापुर और गोलकुंडा की सल्तनत पर मराठा साम्राज्य का ध्वज लहरा दिया। अपने 8 साल के शासनकाल में उन्होंने मराठाओ को औरंगजेब के खिलाफ एक भी युद्ध या गढ़ हारने नही दिया।

1689 के आस-पास संभाजी महाराज ने अपने सहकारियो को रणनीतिक बैठक के लिए संगमेश्वर में आमंत्रित किया, जिससे मुगल साम्राज्य को हमेशा के लिए हटाया जा सके। लेकिन गनोजी शिर्के और औरंगजेब के कमांडर मुकर्रब खान ने संगमेश्वर पर आक्रमण करने की बारीकी से योजना बना रखी थी। इससे पहले औरंगजेब कभी भी संभाजी महाराज को पकड़ने में सफल नही हुआ था।

लेकिन इस बार उसे सफलता मिल ही गयी। और 1 फरवरी 1689 को संगमेश्वर में आक्रमण कर मुगल सेना ने संभाजी महाराज को कैद कर लिया। और फिर मुगलों के खिलाफ विद्रोह करने के लिए 11 मार्च 1689 ईसवी को संभाजी महाराज को मौत के घाट उतार दिया।

संभाजी महाराज की मृत्यु के बाद, उनके सौतेले भाई राजाराम ने सिंहासन संभाला। लेकिन मुगलो की रायगढ़ पर घेरा बंदी से भयभीत होकर, राजाराम को विशालगढ़ होते हुए अपनी सुरक्षा के लिए गिंगी जाना पड़ा। वही से मराठा शूरवीर मुग़ल सैन्य दलों पर छापा युद्ध करते रहे। परिणामस्वरूप बहुत से किलो को मराठाओ ने दोबारा हासिल कर लिया।

जबकि 1697 ईसवी में राजाराम ने औरंगजेब से युद्धविराम की संधि की पेशकश की , लेकिन औरंगजेब ने इंकार कर दिया। इस क्रम में सन 1700 में सिंहगढ़ किले में राजाराम की मृत्यु हो गयी। तत्पश्चात उनकी विधवा पत्नी ताराबाई साम्राज्य को अपने बेटे रामराज अर्थात शिवाजी द्वितीय के नाम पर चला रही थी। जिसने कुछ समय तक मुगलो के खिलाफ मराठा साम्राज्य की कमान संभाली और 1705 में नर्मदा नदी पार कर ,मालवा में प्रवेश किया, ताकि मुगल साम्राज्य पर अपना प्रभुत्व जमा सके।

मराठा शक्ति को संगठित कर चरमोत्कर्ष पर ले जाने वाले वीर शिवाजी महाराज, के पोते साहू को औरंगज़ेब ने 1689 इसवीं से कैद कर रखा था। लेकिन इस कैद के दौरान औरंगजेब ने साहू और उसकी माँ के साथ उनके धर्म, जाति एवं अन्य जरूरतों का पूरी तरह ख्याल कर बड़ी शिष्टता, इज़्ज़त व सम्मान के साथ पेश आया। शायद औरंगजेब को उम्मीद थी, कि साहू के साथ कोई राजनीतिक समझौता हो जाए। लेकिन समय का पहिया ऐसा घुमा कि 1707 में औरंगजेब की मौत के बाद मराठा साम्राज्य के नए शासक बहादुर शाह प्रथम ने साहू को रिहा कर दिया। लेकिन उन्हें इस शर्त के साथ रिहा किया गया, कि वे मुगल कानून का पालन करेंगे। परंतु रिहा होते ही शाहू ने  मराठा सिंहासन की मांग की और अपनी चाची ताराबाई और उनके बेटे को खुली चुनौती दी। इस क्रम में साहू और कोल्हापुर में रहने वाली उनकी चाची ताराबाई के बीच गृह-युद्ध छिड़ गया।

यद्यपि इस क्रम में मराठा सरदारों ने सत्ता के लिए संघर्ष करने वालों में से किसी न किसी का पक्ष लेना आरंभ कर दिया। क्योंकि प्रत्येक मराठा सरदार के पीछे सिपाही थे,जो केवल अपने सरदारों के प्रति निष्ठावान थे।

ऐसा उन्होंने इस अवसर का इस्तेमाल सत्ता के लिए संघर्ष करने वाले दोनों पक्षों से मोलभाव करके अपनी शक्ति और प्रभाव को बढ़ाने के लिए किया। उनमें से कईयों ने दक्कन के मुगल नवाबों के साथ मिलकर साजिशें भी की। साहू और कोल्हापुर स्थित उसके प्रतिद्वंद्वी के बीच झगड़े के फलस्वरूप मराठा सरकार की एक नई व्यवस्था ने जन्म लिया। और शाहू को मराठा साम्राज्य का नया छत्रपति बनाया गया। लेकिन उनकी माता अभी भी मुगलो के ही कब्जे में थी। लेकिन जब मराठा साम्राज्य पूर्णतः सशक्त हो गया। तब शाहू अपनी माँ को रिहा कराने में सफल हुए। इस परिवर्तन के साथ मराठा इतिहास में पेशवा आधिपत्य का दूसरा काल आरंभ हुआ। जिसमें मराठा राज्य एक साम्राज्य के रूप में बदल गया। इसके बाद छत्रपति शाहू ने बालाजी विश्वनाथ को 1713 ईसवी में नए पेशवा या मुख्य प्रधान के रूप में नियुक्त किया। बालाजी विश्वनाथ ब्राह्मण था। उसने अपना जीवन एक छोटे राजस्व अधिकारी के रूप में प्रारंभ किया था। और धीरे-धीरे अपनी योग्यता व अनुभव के दम पर एक बड़ा अधिकारी हो गया। साहू को अपने दुश्मनों को कुचलने के काम में पेशवा अपनी निष्ठापूर्ण और जरूरी सेवाए उपलब्ध कराई, और साथ ही अपनी कूटनीति का बेजोड़ इस्तेमाल करते हुए, अनेक बड़े मराठा सरदारों को साहू की ओर करने में सफलता हासिल की।

बालाजी विश्वनाथ ने  साहू को अपने विश्वास में लेकर धीरे धीरे अपना आधिपत्य मराठा सरदारों और अधिकांश महाराष्ट्र पर कायम किया। केवल कोल्हापुर के दक्षिण के इलाके पर राजाराम के वंशजों का शासन रहा। इस प्रकार पेशवा ने अपने हाथों में शक्ति का संकेंद्रण कर लिया और अन्य मंत्री व सरदार उसके सामने प्रभावहीन हो गए।

वस्तुतः बालाजी विश्वनाथ और उसका बेटा बाजीराव प्रथम ने पेशवा को मराठा साम्राज्य का कार्यकारी प्रधान बना दिया। समय-समय पर बालाजी विश्वनाथ ने मराठा शक्ति को बढ़ाने के लिए मुगल अधिकारियों के आपसी झगड़ों का पूरा फायदा उठाया। उसने दक्कन का चौथ और सरदेशमुखी देने के लिए जुल्फ़िकार खां को राजी कर लिया। अंत में उसने सैयद बंधुओं के साथ एक समझौते पर दस्तखत किए। वे सारे इलाके जो पहले शिवाजी के राज्य के हिस्से थे, साहू को वापस कर दिए गए। इस क्रम में उसे दक्कन के छ: सूबों का चौथ और सरदेशमुखी भी प्राप्त हो गया। बदले में साहू बादशाह की सेवा में 15,000 घुड़सवार सैनिकों को देने, दक्कन में बगावत और लूटमार रोकने और 10 लाख रुपयों का सालाना नजराना पेश करने पर राजी हो गया। नाममात्र के लिए ही सही मगर वह पहले ही मुगल आधिपत्य स्वीकार कर चुका था। वह 1714 में औरंगजेब के मकबरे तक पैदल चलकर खुलदाबाद गया और उसके प्रति सम्मान व्यक्त किया। अपने नेतृत्व में एक मराठा फौज लेकर बालाजी विश्वनाथ 1719 में सैयद अली खां के साथ दिल्ली गया और फर्रुखसियर का तख्ता पलटने में सैयद बंधुओं की मदद की।

बालाजी विश्वनाथ ने मराठा सरदारों को दक्कन में चौथ और सरदेशमुखी की कुशल वसूली के लिए अलग-अलग इलाके सौंपे। मराठा सरदार वसूल की गई रकम का अधिकांश हिस्सा अपने खर्च के लिए रख लेते थे। चौथ और सरदेशमुखी सौंपने की प्रथा ने भी पेशवा को संरक्षण के ज़रिए अपनी व्यक्तिगत शक्ति बढ़ाने में सहायता दी। बड़ी संख्या में महत्त्वाकांक्षी सरदारों ने उसके इर्द-गिर्द जमा होना आरंभ कर दिया। आगे चलकर यही मराठा साम्राज्य की कमजोरी का मुख्य स्रोत सिद्ध हुआ। उस समय तक वतनों और सरजामों अर्थात जागीरों की प्रणाली ने मराठा सरदारों को शक्तिशाली स्वायत्त और केंद्रीय सत्ता के प्रति ईर्ष्यालु बना दिया था। उन्होंने अब मुगल साम्राज्य के सुदूर इलाकों में अपना अधिकार जमाना प्रारंभ कर दिया। वहाँ वे धीरे-धीरे कमोबेश स्वायत्त सरदारों के रूप में बस गए। इस तरह अपने मूल राज्य के बाहर मराठों की जीत में मराठा राजा या पेशवा के सीधे अधीन केंद्रीय फौज का नहीं बल्कि उनके सरदारों की अपनी निजी सेनाओं का हाथ था। जीत के दौरान मराठा सरदार सम्भवतः आपस में टकराते थे। और अगर केंद्रीय सरकार उन्हें सख्ती से नियंत्रित करने की कोशिश करती, तो वे दुश्मनों से मिल जाने में नहीं हिचकते थे। इन दुश्मनों में निज़ाम, मुगल और अंग्रेज़ कोई भी हो सकते थे।

बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु 1720 इसवीं में हो गई। उसकी जगह पर उसका 20 वर्ष का बेटा बाजीराव प्रथम पेशवा बना। युवा होने के बावजूद बाजीराव एक निर्भीक, प्रतिभावान सेनापति व महत्त्वाकांक्षी और कूटनीतिज्ञ राजनेता था। उसे “शिवाजी के बाद गुरिल्ला युद्ध का सबसे बड़ा “प्रतिपादक” माना जाता है।

बाजीराव के नेतृत्व में मराठों ने मुगलों के ख़िलाफ़ अनगिनत अभियान चलाए। पहले उन्होंने मुगल अधिकारियों को विशाल इलाकों से चौथ वसूल करने का अधिकार देने और फिर वे इलाके मराठा राज्य को सौंप देने के लिए मजबूर किया। अप्रैल 1740 तक अपनी मृत्यु से पहले बाजीराव कुल 41 लड़ाईयां लड़ी और उनमे से वे एक भी युद्ध नही हारे।

28 फरवरी 1728 को महाराष्ट्र के नाशिक शहर के पालखेड गाँव में जमीन को लेकर बाजीराव प्रथम और कमर-उद्दीन खान व हैदराबाद के असफजाह प्रथम के बीच युद्ध हुआ था। जिसमे मराठाओ ने निजाम को पराजित कर दिया। इस युद्ध में बाजीराव प्रथम ने सैन्य रणनीति का एक उत्तम नजराना पेश किया था।

1737 में बाजीराव प्रथम के नेतृत्व में मराठाओ ने दिल्ली युद्ध के दौरान, दिल्ली के उपनगरो में बम वर्षा की और छापा मारा। मराठाओ के आक्रमण से मुगलो को बचाने के लिए निज़ाम ने दक्कन छोड़ दिया लेकिन इस क्रम में उसे बुरी तरह से भोपाल के युद्ध में पराजित होना पड़ा।

मुगलो ने इस युद्ध में मराठाओ के सामने पूरी तरह से घुटने टेक दिए थे। और इसी के चलते मराठाओ ने मालवा से संधि करके उन्हें राज्य सौप दिया। इसके बाद वसई का युद्ध मराठा और पुर्तगाली शासको के बीच हुआ, आप को बता दे कि यह गाँव मुंबई के उत्तर में 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इस युद्ध का नेतृत्व बाजीराव के भाई चिमाजी अप्पा ने किया था। इस युद्ध में मराठाओ की विजय बाजीराव के लिए काफी महत्वपूर्ण साबित हुई।

वस्तुतः बाजीराव प्रथम की मृत्यु तक मराठों ने मालवा, गुजरात और बुंदेलखंड के हिस्सों पर अधिकार कर लिया था। सम्भवतः इसी काल में मराठों के गायकवाड़, होल्कर, सिंधिया और भोंसले परिवारों ने प्रमुखता प्राप्त की। जीवन भर बाजीराव ने दक्कन में निज़ाम उल-मुल्क की शक्ति को नियंत्रित करने की कोशिश की। निज़ाम-उल-मुल्क ने भी पेशवा की सत्ता को कमज़ोर करने के लिए कोल्हापुर के राजा, मराठा सरदारों और मुगल अधिकारियों से मिलकर लगातार साज़िशें कीं। अंत में सिलसिट और बसई अर्थात बस्सीन पर कब्जा कर लिया गया।

बीस सालों की छोटी अवधि में ही बाजीराव, मराठा राज्य की दिशा और दशा बदल दिया।

बाजीराव की मृत्यु के बाद उनका अट्ठारह साल का बेटा बालाजी बाजीराव, जो नाना साहब के नाम से जाना जाता था,1740 से लेकर 1761 तक पेशवा रहा। वह अपने

पिता की तरह ही योग्य था, लेकिन वह कम उद्यमी था। छत्रपति साहू 1749 ईसवी में मर गया। उसने अपनी वसीयत के ज़रिए सारा राजकाज पेशवा के हाथों में छोड़ गया। पेशवा का ओहदा तब तक वंशगत बन गया था और पेशवा ही राज्य का असली शासक हो गया था। अब वह प्रशासन का अधिकृत प्रधान हो गया। इस तथ्य के प्रतीक के रूप में वह अपनी सरकार को अपने मुख्यालय पुणे अर्थात वर्तमान पूना ले गया। बालाजी बाजीराव ने अपने पिता का अनुसरण किया और साम्राज्य को विभिन्न दिशाओं में विस्तारित किया। उसने मराठा शक्ति को उसके उत्कर्ष पर पहुँचा दिया। मराठों ने सारे भारत को रौंद दिया। मालवा, गुजरात और बुंदेलखंड पर मराठों का अधिकार मजबूत हो गया। बंगाल पर बार-बार हमले किए गए और 1751 ईसवी में बंगाल के नवाब को मजबूर होकर उड़ीसा मराठों को देना पड़ा। दक्षिण में मैसूर राज्य और अन्य छोटे रजवाड़ों को नज़राना देने के लिए विवश होना पड़ा।

हैदराबाद के निज़ाम को 1760 ईसवीं में उदयगिर में हरा दिया गया और उसे 62 लाख रुपयों के वार्षिक राजस्व वाले विशाल क्षेत्र को मराठों को सौंपना पड़ा। उत्तर में जल्द ही मराठे मुगल सत्ता की असली ताकत बन गए। गंगा के दोआब और राजपूताने से होकर वे दिल्ली पहुंचे, जहाँ 1752 में उन्होंने इमाद-उल-मुल्क को वज़ीर बनने में मदद की। नया वज़ीर जल्द ही उनके हाथों की कठपुतली बन गया। दिल्ली से वे पंजाब की ओर मुड़े और अहमद शाह अब्दाली के प्रतिनिधि को बाहर निकाल कर उस पर अधिकार कर लिया। इससे उनका टकराव अफ़गानिस्तान के बहादुर योद्धा  अहमद शाह अब्दाली के साथ हुआ। जो फिर एक बार, मराठों से बदला लेने के लिए,भारत पर चढ़ आया। अब उत्तर भारत पर अधिकार के लिए एक बड़ा टकराव शुरू हुआ। अहमदशाह अब्दाली ने रुहेलखंड के नजीबउद्दौला और अवध के शुजाउद्दौला से तुरंत गठजोड़ कर लिया। वे दोनों मराठा सरदारों के हाथों हार गए थे। आगामी संघर्ष की बड़ी अहमियत को देखकर पेशवा ने अपने नाबालिग बेटे के नेतृत्व में एक शक्तिशाली फौज उत्तर की ओर भेजा। उसका बेटा तो केवल नाम का ही सेनापति था, वास्तविक सेनापति उसका चचेरा भाई सदाशिव राव भाऊ था।

इस फौज का एक महत्त्वपूर्ण भाग था यूरोपीय ढंग से सुसंगठित पैदल और तोपखाने की टुकड़ी जिसका नेतृत्व इब्राहीम खां गार्दी कर रहा था। मराठों ने अब उत्तरी शक्तियों में सहायक ढूँढ़ने की कोशिश की। मगर उनके पहले के व्यवहार और राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं ने उन सब शक्तियों को नाराज़ कर दिया था। उन्होंने राजपूताना के राज्यों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप किया और उन पर भारी जुर्माने व नज़राने लगाए और साथ ही अवध पर बड़े क्षेत्रीय और मौद्रिक दावे किए। पंजाब में उनकी कार्रवाइयों ने सिख प्रधानों को नाराज़ कर दिया था। जिन जाट सरदारों पर भारी जुर्माने लगाए गए थे, वे उन पर विश्वास नहीं करते थे। इसलिए उन्हें अपने दुश्मनों से ईमाद-उल-मुल्क के कमजोर समर्थन के अलावा अकेले लड़ना पड़ा। यहीं नहीं, बड़े मराठा सेनापति लगातार आपस में झगड़ते रहते थे।

इस क्रम में दोनों फौजों का पानीपत में 14 जनवरी 1761 को एक-दूसरे से आमना-सामना हुआ। मराठा फौज के पैर पूरी तरह उखड़ गए। पेशवा का बेटा विश्वास राव, सदाशिव राव भाऊ, अनेकों मराठा सेनापति, जिनकी संख्या करीब 28,000 थी,सैनिकों के साथ मारे गए। अफ़गान घुड़सवारों ने भागने वालों का पीछा किया। उन्हें पानीपत क्षेत्र के जाटों, अहीरों और गुर्जरों ने भी लूटा-खसोटा। पेशवा जो अपने चचेरे भाई की मदद के लिए उत्तर की ओर बढ़ रहा था, इस दु:खद खबर को सुनकर हक्का-बक्का हो गया। वह पहले से ही गंभीर रूप से बीमार था। और जून 1761 में उसकी मृत्यु हो गई।

पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठाओ ने सतलज, कैथल, पटियाला, जींद, थानेसर, मालेरकोटला, फरीदकोट, दिल्ली और उत्तर प्रदेश में अपने प्रभुत्व को खो दिया। जो उस समय सिंधिया के हाथ में था।

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