ताम्रपाषाणिक संस्कृतिया

नव पाषाण युग के अन्तिम चरण में पत्थरों के साथ धातु का प्रयोग प्रारम्भ हो चुका था। वस्तुतः धातु के रूप में सर्वप्रथम तांबे का प्रयोग किया गया। अनुमानित हैं कि,तांबे के साथ-साथ पत्थरों के औजार, हथियार व उपकरण व्यवहार में लाए गए, इसलिए ताम्रयुग को ताम्रपाषाणिक काल या कैल्कोलिथिक भी कहा जाता हैं। लेकिन तकनीक की दृष्टि से ताम्रपाषाण अवस्था हड़प्पा की कास्ययुगीन संस्कृति से पहले की है।परंतु कालक्रमानुसार भारत मे हड़प्पा की कास्य संस्कृति पहले आती है।और अधिकांश ताम्रपाषाण युगीन संस्कृतियाँ बाद में। इसलिए यंहा हम सर्वप्रथम ताम्रपाषाणिक संस्कृति पर ही चर्चा करेंगे।

नवपाषाण काल में कृषि की शुरूआत के साथ ही मानव के जीवन में स्थायित्व आ गया था और साथ ही उसने पशुपालन की भी शुरूआत कर दी थी। इस काल का मानव अब खाद्य संग्रहकर्ता से खाद्य-उत्पादनकर्ता बन गया था। कृषि कार्य में प्रायः स्त्रियां संलिप्त थी, तथा शिकार में पुरूष संलग्न थे। हांलाकि कृषिकर्म अभी विस्तृत पैमाने पर नहीं था। जबकि क्रीट, मिश्र और मेसोपोटामिया नामक स्थलों पर नवपाषाण काल में उन्नत खेती करने के प्रमाण मिलने शुरू हो गए थे। सिंचाई व्यवस्था की भी शुरूआत हो चुकी थी। लेकिन इन सभी उपलब्धियों के लिए किसी  विशेष प्रकार की तकनीक की आवश्यकता नहीं थी।

कालान्तर में जब मानव स्थायी तौर पर बसने लगा और जनसंख्या वृद्धि के कारण उनके भरण-पोषण के लिए अत्यधिक उपज की आवश्यकता पड़ी, तो अपने जरूरतो को पूरा करने के लिए नई तकनीक के विकास पर जोर दिया गया। तकनीकी क्षेत्र में यह परिवर्तन मुख्यतः धातुओं के अविष्कार से फलित हुआ। परिणामस्वरूप उस समय के समाज में वृहद स्तर पर परिवर्तन दिखाई दिए।ऐसा इस काल में तांबे से बने औजार, पत्थरों से बने औजार की तुलना में अधिक प्रभावशाली थे।क्योंकि इसे पत्थरों की अपेक्षा तीक्ष्ण, और मनचाहे आकार में आसानी से ढाला जा सकता था।और इसे पिघलना और इससे औजार बनाना काफी आसान था।जबकि तांबे को प्रयोग में लाने के लिए उस समय के मानवों को धातु-ज्ञान का होना आवश्यक था। पहले उसे अलग करना या इससे पूर्व उसे वैसे ही पीट-पीट कर इच्छानुसार औजार में परिवर्तित करना आसान था। क्योंकि इनको गलाने में कम समय लगता था। इसके लिए पर्याप्त तापमान का होना आवश्यक है। यह समस्त कार्य एक विशेषज्ञ ही कर सकता था। इस प्रकार समाज के ऐसे निपुण वर्ग की उत्पति हुई जो अन्न उत्पादन की प्रक्रिया में लगा हुआ था। इस वर्ग की खाद्य जरूरतों की पूर्ति कृषक वर्ग करता था तथा कृषकों के लिए औजार तथा जरूरी वस्तुओं की पूर्ति यह कारीगर वर्ग करता था। संभवतः समाज के ये दोनों वर्ग एक-दूसरे पर आश्रित हो गए थे।

तांबे के ज्ञान तथा इसके औजारों के प्रयोग से समाज में न केवल एक नए वर्ग का उदय हुआ हांलाकि इसके साथ ही नवपाषाणकालीन समाज की आत्म-निर्भर अर्थव्यवस्था के स्थान पर अतिरिक्त उत्पादन की जिजीविषा का संचार हुआ। क्योंकि समाज के इस विशेष कारीगर वर्ग को उसी अतिरिक्त उत्पादन में से ही अनाज दिया जाता था।

भारतीय पुरातात्विक अन्वेषकों के द्वारा खोज बिन से भारत के अलग-अलग हिस्सों में मिले ताम्रयुगीन स्थलों के साक्ष्यों से यह प्रतीत होता है कि वे मुख्यतः ग्रामीण समुदाय बना कर रहते थे, और देश के ऐसे विशाल भागों में फैले थे,जँहा पहाड़ी जमीन और नदियाँ थी।भारत मे ताम्रपाषाणिक काल की बस्तियां दक्षिण-पूर्वी राजस्थान, मध्यप्रदेश के पश्चिमी भाग, पश्चिमी महाराष्ट्र, एवं दक्षिण-पूर्वी भारत मे पायी गयी।

ऐसा प्रतीत होता है कि तांबा की जरूरतों के फलस्वरूप इस काल में व्यापारिक गतिविधियों की भी शुरूआत हुई होगी। संभवतः देखा जाय तो  यह विनिमय प्रणाली, वस्तुओं के आदान-प्रदान पर आधारित थी।

वन सम्पदा को बढ़ावा देने में घुम्मकड़ कबीलों या आदिवासियों का विशेष योगदान रहा होगा।क्योंकि इन्हें एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में घुमने के कारण विभिन्न क्षेत्रों के प्राकृतिक संसाधनों की पूरी जानकारी रहती थी। ताम्रपाषाणीय युग में धातु ज्ञान के अतिरिक्त और भी बहुत चीजों का अविष्कार हुआ जैसे कुम्हार की भट्टियां और चाक इत्यादि। इससे बर्तनों को अच्छी तरह बनाया और पकाया जा सका। इस कार्य को भी निपुण व्यक्ति या वर्ग ही सम्पन्न कर सकता था साधारण व्यक्ति नहीं। इसलिए मृदभाण्डों का निर्माण करने वाला एक अन्य वर्ग कुम्हार भी इस काल में अस्तित्व में आया।चाक पर निर्मित मृदभांडों अर्थात मिट्टी से बने बर्तन की शुरूआत हो चुकी थी, लेकिन अधिकतर मिट्टी के बर्तन टोकरी पर बने, हाथ से निर्मित और घुमावदार तरीके से बनाए हुए प्रतीत होते थे।

इस काल में चूंकि कृषि से अधिक अन्न उत्पादन की आवश्यकता थी तो इसके लिए भी कृषि में नए-नए तरिकों का आविष्कार हुआ। अभी तक कृषि का कार्य अधितर स्त्रियां ही करती थी परन्तु अन्न उत्पादन की मांग में वद्धि होने के कारण मानव ने बैलों द्वारा हल खींच कर खेती करना आरंभ कर दिया। इस प्रकार उसने पशु शक्ति को अपने वश में कर अपना प्रभुत्व भी बढ़ा लिया। अतः इस काल के मानव ने व्यक्तिगत संपति की अवधारणा को अपना लिया,अर्थात जिसके पास जितना धन उसका उतना महत्व।  जो व्यक्तिगत संपति तथा शक्ति का द्योतक था। पहिए वाली गाड़ी की शुरूआत हो चुकी थी। जिससे एक स्थान से दूसरे स्थान पर आना-जाना और व्यापार करना आसान हो गया था।इस प्रकार हम देखते हैं कि ताम्रपाषाण युग विशेषीकरण का काल था।

यद्यपि इस काल में लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि था लेकिन इसके अतिरिक्त विभन्न प्रकार के शिल्प उद्योग भी अस्तित्व में आ गए थे। जैसेः धातु विशेषज्ञ, कुम्हार,पंसारी, कारीगर इत्यादि। इस प्रकार प्रत्येक वर्ग की सामाजिक कार्य निपुणता इस काल में देखने को मिलती है।इनका मुख्य व्यवसाय कृषि था। भारतीय स्थलों में इनाम गांव प्रमुख है जो कृषि पर ही आधारित ग्रामीण व्यवस्था में रहते थे। यहां पर जातीयता के प्रमाण सरदार का घर बस्ती के केंद्र में होने से मिलते हैं। यहां पर मातृ देवी की प्रतिमा और अन्न संग्रह के लिए भी स्थान मिले हैं।

इस काल में लोग मुख्यतः स्थायी रुप से कच्ची ईटों या सूर्य की रोशनी में सुखाई ईंटों के बने घरों में रहते थे। लोग गांवों में रहते थे जो खंडहरों के ऊपर बसाए जाते थे। परन्तु कुछ स्थानों पर जैसे राजस्थान के आहार और गिलुन्द के कुछ घरों में पत्थर के दीवारों के प्रमाण मिलते हैं।साधारण घर गारे और पत्थरों के बने होते थे।लेकिन पूर्ण गृह योजना उपलब्ध नही है। इसके विपरीत दक्कन क्षेत्र में घरों के प्रमाण जमीन के नीचे मिलते हैं जिनके छोटे कमरे होते थे। ये लोग चूने से निर्मित फर्श तथा दीवारों पर प्लास्टर करते थे। इनाम गांव में चूल्हों सहित बड़ी-बड़ी कच्ची मिट्टी के मकान और गोलाकार गढ्ढो के मकान मिले हैं। यहां पर एक घर ऐसा मिला है जहां पर चार कमरे आयताकार एवं एक कमरा वर्गाकार है। यहां पर अन्न संग्रह तथा राजस्व के एकत्रीकरण के लिए अलग से व्यवस्था देखने को मिलती है।

इस समय जो सबसे अधिक एवं महत्वपूर्ण परिवर्तन देखने को मिलता है वह है इस काल के औजारों में आया परिवर्तन, क्योंकि अब तांबे को विभिन्न आकृतियों में सुगमता से ढाल कर तथा पीटकर अधिक प्रभावशाली तथा मजबूत औजार बनाए जाते थे। तांबे के औजारों में मुख्यतः चाकू तथा छुरी प्राप्त हुए हैं। स्थल पर युद्ध होने के प्रमाण मिलते हैं क्योंकि यहां पर मछली पकड़ने का कांटा, बरछी, तलवार जोकि तेज धार वाले तांबे से बनाए गए औजार थे। ये औजार एक बार टुटने पर दोबारा ढाले जा सकते थे। इस प्रकार सभी स्थलों से प्राप्त औजारों में अधिकता तांबे के औजारों की मिलती है।

इस काल के मृदभांडों में विशेष रुप से परिवर्तन देखने को मिलते हैं। सभी स्थलों पर तेज गति से घूमने वाले चाक पर बनाई गई मृदभांड के प्रमाण मिलते हैं। जोरवे में कुम्हार द्वारा पहिए पर सुंदर बर्तन के बारे में साक्ष्य मिलते हैं। यहां पर शिल्पी के बारे में भी प्रमाण मिलते हैं। यहां पर चरखें व तकलियाँ मिली हैं जिनसे इनके सूत कातने तथा वस्त्र निर्माण के प्रमाण मिलते हैं। ये चाकों पर मृदभांड भी बनाते थे।  इस काल में सूती वस्त्र, रेशमी वस्त्र तथा चटाईयों के भी प्रमाण मिलते हैं तथा ये विभिन्न डिजाइनो में बनी होती थी। यहां पर हाथी दाँत से वस्तुएं तथा पकी मिट्टी की मूर्तियां भी प्राप्त होती है। इसी तरह लगभग सभी स्थलों पर बैलगाड़ियों के प्रमाण मिलते हैं। इनामगांव के शिल्पकार अधिक कुशल थे। यहां से विशेषतः कार्नेलियन, स्टेटाइट, क्वार्टज,सेलखड़ी जैसे महंगे पत्थरों के मोती मिलते हैं।

इनके आर्थिक जीवन में मुख्यतः व्यापार कृषि तथा पशुओं के बारे में जानकारी मिलती है।

ताम्रपाषाणिक काल की लगभग सभी स्थलों की अर्थ व्यवस्था कृषि पर निर्भर थी। कुछ स्थलों पर अतिरिक्त उत्पादन के लिए विभिन्न तकनीक का प्रयोग किया जाता था। ये प्रायः कृषि को जोतने के लिए पशुओं का प्रयोग करते थे। इनकी मुख्य फसलें जौ, गेहूँ, बाजरा, चावल, मसूर तथा दालें व तिलहन थी इसके अलावा कुछ स्थलों पर सब्जियों के उत्पादन के प्रमाण मिलते हैं।

ताम्रपाषाणिक काल में व्यापार का अत्यधिक प्रचलन देखने को मिलता है। लगभग सभी स्थलों पर अतिरिक्त उत्पादन किया जाता था जिसका मुख्य उद्धेश्य व्यापार करना था। कीमती पत्थरों, धातुओं इत्यादि के आयात के बदले कृषि अधिशेष को दिया जाता था। जिन्हें इन लोगों को जरूरत से अधिक उपजाना पड़ता था जिससे वस्तु विनिमय के आधार पर व्यापार में इन्हें प्रयुक्त किया जा सके।

यहां पर लगभग सभी स्थलों से लोगों की धार्मिक आस्था का पता चलता है लोग मृतको का संस्कार अलग-अलग क्षेत्रो में विभिन्न तरीके से एक विशेष विधि द्वारा करते थे। मृतको के साथ खाने-पीने की वस्तुएं आंगन में गाड़ते थे।तो कंही-कंही मृतकों के साथ मृदभांड और तांबे की कुछ वस्तुएं रखी जाती थी। परन्तु इनाम गांव में ये लोग मृतकों को कलश में रख कर अपने घर मे फर्श के अंदर  उत्तर-दक्षिण दिशा की ओर गाड़ते थे। यहां पर लगभग सभी स्थलों से किसी अराध्य देवी की मूर्तियो के प्रमाण मिलते हैं।जिससे यह प्रतीत होता है कि ये लोग मातृ देवी की पूजा करते थे और साथ ही कच्ची मिट्टी की नग्न मूर्तिकाओ को भी पूजते थे। इस काल में बैल की भी पूजा होती थी। क्योंकि उनका प्रयोग भारवाहक के रूप में किया जाता था।

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