मौर्यकालीन समाज

भारतीय इतिहास में मौर्य काल की जानकारी मुख्यतः दो श्रोतों के आधार पर प्राप्त होती हैं।  जो क्रमशः साहित्यिक श्रोत और पुरातात्विक श्रोत के रूप में जाने जाते है। साहित्यिक श्रोत के अंतर्गत जंहा हम कौटिल्य का अर्थशास्त्र, विशाखादत्त द्वारा रचित मुद्राराक्षस, मेगास्थानीज की इंडिका, बौद्ध साहित्य और पुराण का सहारा लेते हैं तो वही पुरातात्विक श्रोत के तहत हम अभिलेख, सिक्के, कलात्मक साक्ष्य एवं भौतिक साक्ष्य इत्यादि के मार्गदर्शन में मौर्यकालीन समाज व संस्कृति को आत्मसात कर सकते है।

मौर्य साम्राज्य के प्रशासन का स्वरूप केंद्रीकृत था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार प्रशासन के सभी पहलुओं में राजा का विचार और आदेश सर्वोपरि होता था। इस क्रम में कौटिल्य ने राज्य के सात अवयव बताए है, जिन्हें सप्तांग कहा जाता है। जिनके नाम क्रमशः राजा,अमात्य,जनपद,दुर्ग, कोष, बल और मित्र हैं। इन सप्तांगो में कौटिल्य, राजा को सर्वोच्च स्थान प्रदान करता है और शेष को अपने अस्तित्व के लिए राजा पर निर्भर रहना होता है।

व्यवस्थित प्रशासन के लिए एक मंत्रिपरिषद का होना जरूरी है, जिसका वर्णन हमें अशोक के शिलालेखों और अर्थशास्त्र से प्राप्त होता है। राजा अपने सभी राज-कार्यों का संचालन अमात्यों, मंत्रियों और अधिकारियों के द्वारा करता था। जहां अमात्य एक सामान्य पदनाम था। जिसे राज्य के सभी पदाधिकारियों के बारे में जानकारी होता था। प्रशासन के मुख्य अधिकारियों का चुनाव राजा इन्हीं अमात्यों की सहायता से करता था। मौर्य काल में प्रशासनिक सुविधा के लिए केंद्रीय प्रशासनिक तंत्र को अनेक भागों में विभक्त किया गया था जिसे “तीर्थ” अर्थात विभाग कहा जाता था। जिसकी चर्चा कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में 18 तीर्थों और इसके प्रमुखों के रूप में की है। ये सभी विभागीय अधिकारी उच्च श्रेणी के थे। इनके अतिरिक्त भी अनेक अधिकारियों का वर्णन चाणक्य ने अर्थशास्त्र में किया है जिन्हें अध्यक्ष कहा जाता था।

मौर्य राजाओं ने अपनी सेना को बहुत ही संगठित और बड़े आकार में व्यवस्थित की थी। जिसमें मुख्यतः पैदल सैनिक, घुड़सवार सेना, हाथी और रथ प्रमुख थे। जिसे चाणक्य ने चतुरंगबल के रूप में अलंकृत किया है,और सेना का प्रमुख भाग बताया है

मौर्य राजाओं द्वारा अपनी निरंकुशता एवं केंद्रीय प्रशासन की पकड़ को मजबूत बनाने के लिए एक संगठित गुप्तचर प्रणाली का गठन भी किया गया था। गुप्तचरों में प्रायः स्त्री और पुरुष दोनों होते थे जो भेष बदलकर कार्य करते थे जैसे सन्यासी, छात्र और व्यापारी इत्यादि बनकर।

न्याय व्यवस्था के आलोक में मौर्य काल में  केन्द्र से लेकर स्थानीय स्तर तक दीवानी और फौजदारी मामलों के लिए अलग-अलग न्यायालयों के प्रमाण मिलते है।और साथ ही राजा को न्याय का सर्वोच्च अधिकारी भी बताया गया है। इस प्रकार अर्थशास्त्र में दो तरह के न्यायालयों की चर्चा मिलती है एक धर्म स्थानीय तो दूसरा कंटक शोधन के रूप में। जहां धर्म-स्थानीय न्यायालय के द्वारा दीवानी अर्थात स्त्रीधन एवं विवाह संबंधी विवादों का निपटारा होता था, तो वही कंटकशोधन न्यायालय द्वारा फौजदारी मामले अर्थात हत्या व मारपीट जैसे अपराधों का निपटारा होता था इस क्रम में विवादों का विधिवत पंजीकरण होता था, जहां सभी को गवाही देने और अपना पक्ष रखने का अवसर प्राप्त होता था।

प्रांतीय प्रशासन की बात करें तो, हमें प्राप्त होता है कि प्रांतीय प्रशासन का मुखिया या प्रधान राज-परिवार का सदस्य होता था। जिसे प्रांतपति अथवा गवर्नर के पद से संबोधित किया जाता था। इसके आलोक में हमें सर्वप्रथम उदाहरण के रूप में अशोक का नाम दिखाई पड़ता है, जो राजा बनने से पहले उज्जैन के गवर्नर हुआ करते थे तो वही दिव्यवदान के अनुसार अशोक के पुत्र कुणाल राजा बनने से पहले तक्षशिला के गवर्नर के रूप में अपने आप को सुशोभित किए थे। प्रांतों के प्रशासन को चलाने में राजकुमारों की सहायता हेतु “महामात्य” और “मंत्रिपरिषद” की नियुक्ति होती थी।

जबकि जनपद और गांव के प्रशासन नागरिक आधार पर बटे होते थे, जिनमे कई गांव के संगठन कार्यरत थे। परंतु साथ ही साथ हर गांव की अपनी अलग प्रशासनिक व्यवस्था होती थी। चाणक्य के अनुसार जनपद स्तर पर प्रदेष्टा नामक अधिकारी होता था जिसके ऊपर जनपद के कामकाज की जिम्मेदारी थी अन्य दूसरे अधिकारियों में “राजुक” और “युक्त” थे। जबकि प्रादेशिक सबसे महत्वपूर्ण अधिकारी  था, जो शायद मंडल का प्रधान होता था, उसका कार्य वर्तमान समय के संभागीय आयुक्त जैसा ही था।जहा “राजुक” भूमि की पैमाइश अर्थात नाप-जोख का कार्य करता था तो वही “युक्त” आज के जिलाधिकारी अर्थात समस्त जिले का राजस्व वसूल करता था और लेखा-जोखा रखता था।

ग्राम स्तर की बात करें तो वहां का प्रशासन स्थानीय लोगों द्वारा ही क्रियान्वित किया जाता था इन्हें मुख्यतः ग्रामिक कहते थे।और गांव के मुखिया को ग्रामणी कहा जाता था। एक अन्य रूप में “गोप” और “स्थानिक” दो ऐसे अधिकारी थे। जो ग्राम और जनपद के बीच मध्यस्थता का कार्य करते थे।

मौर्यकालीन समाज की संरचना के बारे में जानकारी हमें कौटिल्य के अर्थशास्त्र मेगास्थनीज की “इंडिका” अशोक के अभिलेख एवं रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से प्राप्त होती है। परिवार में स्त्रियों की स्थिति पहले के कालों की अपेक्षा अब अधिक सुरक्षित थी। लेकिन इस स्थिति को हम मौर्य काल में अधिक उन्नत नहीं कह सकते हैं। क्योंकि उन्हें बाहर जाने की स्वतंत्रता नहीं थी और बाहर ना जाने वाली ऐसी स्त्रियों को कौटिल्य ने “अनिवकासिनी” कहा है। बौद्ध एवं यूनानी साक्ष्यों के अनुसार समाज में सती प्रथा विद्यमान थी।

मेगास्थनीज के अनुसार मौर्य काल में दास प्रथा का अस्तित्व नहीं था जबकि कौटिल्य के अर्थशास्त्र में नौ प्रकार के दासों का उल्लेख किया गया है।

जहां मौर्य काल में वैदिक धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म और आजीवक अपनी प्रमुखता बनाए हुए थे। तो वही मौर्य सम्राटों में चंद्रगुप्त मौर्य जैन अनुयायीं, बिंदुसार “आजीवक” और अशोक बौद्ध धर्म के प्रति आस्था रखते थे। सभी मौर्य सम्राट अपने राजत्व कॉल में अपने व्यक्तिगत धर्मों के अलावा अन्य धर्मों के प्रति भी सहिष्णुता रखते थे अर्थात किसी भी धर्म के साथ भेदभाव नहीं किया जाता था। जहां बौद्ध धर्म को सम्राट अशोक ने अपने शासनकाल में राजकीय संरक्षण दिया और देश- विदेश में प्रचार-प्रसार किया। तो वहीं दूसरी तरफ जैन धर्म को भी मौर्य सम्राटों ने संरक्षण दिया। इस क्रम में चंद्रगुप्त मौर्य और अशोक का एक उत्तराधिकारी सम्प्रति भी जैन धर्म का अनुयाई था। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार अशोक ने 84000 स्तूपों का निर्माण करवाया, जिसमें भरहुत, सांची और अमरावती के स्तूप अशोक द्वारा बनवाए गए उल्लेखनीय स्तूप हैं

कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार मौर्य काल में भारतीय समाज विभिन्न वर्गों में बंटा हुआ था। जिनमें ब्राह्मण,क्षत्रिय ,वैश्य और शूद्र सम्मिलित थे। इन जातियों के अनेक उपजातियां भी बनने लगी थी परन्तु मुख्यतः इनका विभाग चारों वर्णों में ही समाहित था। जबकि मेगास्थनीज ने अपनी पुस्तक इंडिका में भारतीय समाज को सात वर्गों में विभाजित किया है। जो क्रमशः दार्शनिक, किसान, अहिर अर्थात ग्वाला, कारीगर, सैनिक, निरीक्षक, सभासद के रूप में विभक्त थे।

संभवतया मेगस्थनीज ने उनके द्वारा किए जाने वाले अलग-अलग प्रकार के कार्यों को देख कर उनके विषय में इस प्रकार से अनुमान लगाया है। वास्तव में भारतीय समाज में चार वर्णों का ही मुख्यतः वर्णन किया गया है और इन वर्णों के अंतर्गत आने वाले व्यक्तियों के द्वारा विभिन्न प्रकार के कार्य किए जाते रहे हैं। आगे मेगास्थनीज लिखते हुए कहते है कि कोई भी अपनी जाति नहीं बदल सकता था,और ना ही अपनी जाति के बाहर विवाह कर सकता था।

लेकिन सम्राट अशोक के लेखों से अनुमान लगाया जा सकता है कि अंतर जाति विवाह यदा-कदा होते थे।

जैसा कि हम लोग जानते है कि प्राचीन काल से ही हिन्दू धर्म में विवाह एक पवित्र बंधन माना जाता है  जो स्त्री और पुरुष के बीच मंत्रोच्चारण के साथ विधिवत संपन्न किया जाता है।

सामन्यतः मौर्य काल में आठ प्रकार के विवाह प्रचलित थे। जिनके नाम क्रमशः ब्रह्म, दैव, आर्य , प्रजापत्य, गंधर्व, असुर, राक्षस और पैशाच है। परंतु विवाह वही उत्तम माना जाता था, जो माता-पिता की सहमति से किया जाता था। पुरुषों में बहु-विवाह की भी प्रथा प्रचलित थी। जनसाधारण में सामान्यतया एक पति या पत्नी विवाह प्रचलित था। स्त्री और पुरुष दोनों पुनर्विवाह कर सकते थे। यदि स्त्री पति का कहना ना मानने वाली, कलह प्रिय, संबंधियों का अनादर करने वाली और संतान उत्पन्न करने में असमर्थ हो तो फिर पुरुष को दूसरा विवाह करने का अधिकार था। तो इसके विपरीत यदि पुरुष 10 वर्षों से अधिक समय से परदेस में रह रहा हो, और उसकी कोई सूचना ना मिले तो स्त्री अपने अभिभावक से पूछ कर पुनर्विवाह कर सकती थी। पुरुष की मृत्यु हो गई हो अथवा वह नपुंसक हो तो भी स्त्री को दूसरा विवाह करने का अधिकार प्राप्त था।

मेगस्थनीज के अनुसार कुछ स्त्रियां आनंद के लिए तो कुछ संतान के लिए ब्याही जाती थी। इसके अतिरिक्त पुत्र प्राप्ति के लिए समाज में नियोग प्रथा भी प्रचलित थी। अर्थात पति के नपुंशक होने व पति की अकाल मृत्यु होने पर पत्नी सन्तानोपत्ति के लिए अपने देवर या फिर संगोत्री से गर्भाधान, नियोग प्रथा के तहत करा सकती है। इसके अलावा समाज में विवाह विच्छेद का भी प्रचलन था। जिसे कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में मोक्ष कहा है।

स्त्रियों के संदर्भ में बात करे, तो मौर्यकालीन समाज में स्त्रियों का महत्वपूर्ण स्थान था। स्त्रियों का सम्मान माता, पत्नी और पुत्री के रूप में होता था। जबकि पति परिवारिक संपत्ति का मालिक होता था। परंतु स्त्री गृह स्वामिनी होकर उन सभी संपत्तियों का उपभोग करती थी। स्त्रियों को भी अपने पति के अत्याचार से मुक्ति के लिए न्यायालय में जाने का अधिकार था, और वह इसके लिए न्याय मांग सकती थी। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि, स्त्रियों को अपने मामले में काफी स्वतंत्रता थी। सामान्यतः स्त्रियां घर पर ही रहती थी। मौर्य काल में अंशत: पर्दा प्रथा भी प्रचलित थी केवल “परिव्राजिका” अर्थात सन्यासिनी ही घर के बाहर स्वच्छंद रूप से विचरण कर सकती थी।

मौर्य कालीन समाज में वेश्यावृत्ति का प्रचलन था। और  इन वेश्याओं को “रूपाजीवा” कहा जाता था। अर्थशास्त्र में वेश्याओं के लिए भी विभिन्न नियमों का प्रतिपादन किया गया है, वैश्यालय की मुखिया महिला होती थी जिसे “मातृका” कहा जाता था। और साथ ही वेश्याओं से भी कर  के रूप में अपनी मासिक आमदनी में से दो दिन का भाग राजा को कर के रूप में अदा करने की बात कौटिल्य के अर्थशास्त्र में वर्णित है।

वस्तुतः मौर्यकालीन समाज में शासन के द्वारा व्यभिचार पर नियंत्रण करने की व्यवस्था की गई थी। अर्थशास्त्र के अनुसार यदि कोई व्यक्ति अपने घर में वैश्यालय खोलता है या व्यभिचार के द्वारा घर में कमाई करता है तो उस स्त्री को वैश्यालय में ले जाकर “मातृका” के सुपुर्द कर देना चाहिए तथा उस व्यक्ति को कठोर दंड दिया जाना चाहिए। क्योंकि “मातृका” ही वैश्यालय की मुखिया होती थी।

सौभाग्यवश उस युग में भारतवर्ष को आचार्य चाणक्य के रूप में एक महान अर्थशास्त्री प्राप्त हुआ था जिसने मौर्य शासन व्यवस्था को चारों तरफ से सुदृढ़ कर दिया था। अर्थशास्त्र ग्रंथ और मेगस्थनीज की इंडिका में कृषि पशुपालन एवं उद्योग धंधों के विषय में काफी प्रकाश डाला गया है।

कौटिल्य ने अपनी पुस्तक अर्थशास्त्र में कृषि के विभिन्न साधन और भूमि के दो प्रकारों का उल्लेख किया है। पहला राजकीय भूमि और दूसरा निजी भूमि के रूप में।

क्योंकि मौर्य काल में कृषि आर्थिक व्यवस्था का आधार हुआ करता था। और शायद इस काल में ही प्रथम बार दासों को कृषि कार्य में लगाया गया था। भूमि राजा और कृषक दोनों के अधिकार में होती थी। लेकिन मेगास्थनीज के अनुसार भूमि का अधिकांश भाग सिंचित था। रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से पता चलता है कि सौराष्ट्र प्रांत में सुदर्शन झील का निर्माण कार्य चंद्रगुप्त के राज्यपाल पुष्यगुप्त वैश्य द्वारा पूर्ण करवाया गया था। कर के रूप में भाग, बनी और हिरण्य इत्यादि का प्रचलन था। जिसमें उपज का एक बड़ा भाग ले लिया जाता था।

यद्यपि उद्योग धंधों की संस्थाओं को “श्रेणी” कहा जाता था। श्रेणियों के अपने अलग न्यायालय होते थे। जो व्यापार-व्यवसाय संबंधी झगड़ों का निपटारा किया करते थे। इस तरह श्रेणी के प्रधान को “महाश्रेष्ठी” कहा जाता था। मौर्य काल में आंतरिक एवं बाह्य दोनों ही प्रकार से व्यापार होता था। मेगास्थनीज ने “एग्रोनोमोई” नामक अधिकारी की चर्चा अपनी पुस्तक इंडिका  में किया है, जो मार्ग निर्माण का विशेष अधिकारी था। इस समय मगध का बाह्य व्यापार सीरिया, मिस्र और अन्य पश्चिमी देशों के साथ पश्चिमी भारत के भृगुकच्छ और पूर्वी भारत के ताम्रलिप्ति बंदरगाहों के माध्यम से संपन्न होता था। क्योंकि मौर्य काल तक आते-आते व्यापार-व्यवसाय में नियमित सिक्कों का प्रचलन हो चुका था। यह सिक्के सोने, चांदी और तांबे के बने होते थे। जहां स्वर्ण सिक्कों को “निष्क” व “सुवर्ण” कहा जाता था। तो वहीं चांदी के सिक्कों को “कार्षापण” या “धारण” कहा गया था। तांबे के सिक्के “माषक” और छोटे-छोटे तांबे के सिक्के “काकड़ी” कहलाते थे। जबकि प्रधान सिक्का “पण” होता था जिसे “रूपय्यक” भी कहा गया है। क्योंकि कौटिल्य के अर्थशास्त्र में राजकीय टकसाल का उल्लेख मिलता है। जिसका अध्यक्ष “लक्षणाध्यक्ष” होता था। मुद्राओं का परीक्षण करने वाले अधिकारी को “रूप दर्शक” कहा जाता था।इस क्रम में कौटिल्य के अर्थशास्त्र में व्यापारिक गतिविधियों से जुड़े विभागो के विभिन्न अधिकारियों का वर्णन किया गया है। जिनके नाम कुछ इस प्रकार से है जैसे- सूत्र विभाग अर्थात सूत काटने के विभाग से जुड़े अधिकारी को सूत्राध्यक्ष ,कृषि विभाग के अधिकारी को सीताध्यक्ष, समुद्र या नदी तट की देखभाल करने वाले अधिकारी को तटाध्यक्ष और नावों की व्यवस्था करने वाले अधिकारी को नवाध्यक्ष कहा जाता था।

मौर्य युगीन भारत व्यापारिक दृष्टि से अत्यंत उन्नत अवस्था में था विभिन्न वस्तुओं का उत्पादन होता था। अर्थशास्त्र में गेहूं ,चावल,जौ,सांवा,कोदौ ,चना ,गन्ना, सरसों, मटर आदि विभिन्न फसलों का उल्लेख है। कृषि कर, उपज का छठा हिस्सा था। जबकि पशुपालन में गाय, भेड़ ,बकरी ,घोड़ा, मुर्गी पाले जाते थे। गायों को मारने पर दंड का विधान था। गायों की देखभाल के लिए ग्वाले नियुक्त थे, और उनके चरने हेतु चारागाह बनाए गए थे।

कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार यह बताया गया है कि- पुष्पफलशाकमूलकंदवल्लिक्यबीजशुष्क मत्स्यमासानां षडभागं गृहणियात।

                             अर्थात

फूल ,फल ,शाक ,गाजर ,मूल ,शकरकंद ,धान्य ,सूखी मछली और मांस ,इन वस्तुओं पर उनकी लागत का छठा हिस्सा चुंगी लेनी चाहिए।

मौर्यों के समय जंहा काशी ,बंगाल, मालवा सूती वस्त्रों के लिए प्रसिद्ध थे। तो वही विभिन्न प्रकार के रेशम के उत्पादन के साथ चीन से भी आयात किया जाता था जिसे “चीनपट्ट” कहा जाता था। जबकि इस समय भारतीय सोने, चांदी, तांबा, लोहा ,सीसा, ज़िंक आदि से परिचित थे और इन्हें खानों से निकाला जाता था।

मौर्यकालीन राजाओं ने शासन को सुदृढ़ व सुरक्षित बना दिया था। विस्तृत साम्राज्य के लिए मार्गों का निर्माण कराया गया था। सबसे लंबा राजमार्ग तक्षशिला से पाटलिपुत्र तक था। चंद्रगुप्त मौर्य की सेल्यूकस पर विजय होने से कंधार,काबुल के प्रांत भारत को मिल गए थे। और यूनानी राजाओं की भारतीय राजाओं से मित्रता हो गई थी। चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में मेगस्थनीज दूत था और सम्राट अशोक के दरबार में सीरिया के राजा एंतियोकस ने अपना दूत भेजा था। व्यापारियों के लिए भी सुविधा हुई और भारत से लेकर ईरान, इराक  होते हुए युरोप तक स्थल मार्ग से व्यापार सुगमता से होने लगा।

भारत का व्यापार जलमार्ग से भी होता था। और यह उन्नत अवस्था में थी। जिसके साक्ष्य हमें भारत और मिस्र के साथ अरब सागर के बंदरगाहों से होने वाले व्यापार के रूप में प्राप्त होते है। अर्थशास्त्र ग्रंंथ में छोटी से लेकर बड़ी नौकाओं का ,और साथ ही नदी व समुद्र दोनों जल मार्गों का वर्णन प्राप्त होता है।

 नवाध्यक्षः समुद्रसंयाननदीमुखतरप्रचारान।               देसरोविसरोनदीतारांश्च स्थानीयादिष्ववेक्षेत।।

                            अर्थात

नौकाध्यक्ष को चाहिए कि वह समुद्रतट के समीपवर्ती नदी को ,समुद्र के नौका मार्गों को झीलों ,तालाबों और गावों के छोटे -छोटे जलीय मार्गों को भलीभांति देखता रहे।

मौर्य काल में वैदिक,बौद्ध और जैन धर्म के विभिन्न धर्म ग्रंथों को लिखा गया था। वैदिक ग्रंथों में वेदांग ,धर्मसूत्र आदि की रचना  के साथ भास के नाटकों को भी इसी काल मे संकलित किया गया था। पाणिनि की अष्टाध्यायी को भी इसी युग का माना जाता है। इस युग का राजनीति पर लिखा गया विश्व प्रसिद्ध महत्वपूर्ण ग्रंथ कौटिल्य कृत अर्थशास्त्र है।

मौर्य काल में सामान्य जनता की भाषा पाली थी संभवतः इसीलिए अशोक ने अपने अभिलेख वह आदेश पाली भाषा में ही उत्कीर्ण करवाए थे और साथ ही पाली को राजभाषा का दर्जा दिया था। क्योंकि संस्कृत उच्च वर्ण एवं शिक्षित समुदाय की भाषा थी।

इस समय तक्षशिला विश्वविद्यालय भारत ही नहीं वरन संपूर्ण विश्व में ज्ञान और संस्कृति का पाठ पढ़ाता था। इसके अलावा मौर्यों की राजधानी पाटलिपुत्र,जो विद्या का एक प्रमुख निकेतन था। तो वही,काशी धर्म ग्रंथों की शिक्षा के लिए आकर्षण का केंद्र था।

मौर्य शासकों ने सुंदर-सुंदर भवनों का निर्माण कराया था। जिनके विषय में फाह्यान नामक चीनी यात्री का विवरण महत्वपूर्ण है। जिसने बताया था कि सम्राट अशोक के बनवाए भवनों को देखकर वह चकित हो गया था और लिखता है कि भवनों को देख कर ऐसा प्रतीत होता है, जैसे देवों ने उसकी रचना की हो। क्योंकि पत्थरों को इकट्ठा करके, दीवारों व तोरण द्वारो को चिना गया और उस पर अद्भुत नक्काशी की गई है। ऐसा कार्य संसार के मनुष्य के बस की बात नहीं है।

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