सन् 1857 में सिपाही विद्रोह के बाद भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन को समाप्त कर दिया गया, क्योंकि तत्कालीन समय में कंपनी, भारतीय रियासत के समक्ष कमजोर पड़ रही थी। अत: भारत पर शासन को बनाए रखने के लिए 1858 में इंग्लैंड की संसद, संपूर्ण शासन व्यवस्था को अपने हाथो में ले लिया, जिसे “ताज का शासन” नाम से जाना जाता है। यह शासन 1947 तक चला। जिसमें अनेक अधिनियम पारित किए गए, जिसकी चर्चा हम बारी बारी से करेंगे।
भारत सरकार अधिनियम 1858 के साथ ही भारत में ताज का शासन प्रारम्भ हुआ। इसका आगमन 1857 के विद्रोह के बाद हुआ। इसमें कंपनी शासन के विसंगतियों को दूर करके भारत के शासन को अच्छा बनाने का कार्य किया गया। क्योंकि इंग्लैंड के बहुत से लोगों को यह विश्वास हो गया था, कि 1857 की क्रान्ति का कारण शासक और शासित के बीच घनिष्ठ संबंध का अभाव एवम् देशों की व्यवस्थापिका सभाओं में भारतीयों की अनुपस्थिति थी। वस्तुतः भारतीय लोग सरकार के विषय में क्या सोचते हैं, इसकी जानकारी तभी हो सकती है, जब प्रमुख भारतीयों को कौंसिलों व सरकार में हाथ बंटाने का मौका दिया जाए। जबकि दूसरी ओर सैयद अहमद खां जैसे वफादार भारतीयों ने भी इस बात पर जोर दिया कि भारतीयों को विधायिका परिषद् में स्थान दिया जाना चाहिए। परिणाम स्वरूप ईस्ट इंडिया कंपनी को हटाकर सत्ता एवं राजस्व संबंधी शक्तियां ब्रिटिश राजशाही को ही दे दिया गया।
1858 का ब्रिटिश भारत शासन अधिनियम
1857 की क्रांति से ब्रिटिश उपनिवेश को चुनौती मिल चुकी थी। इसलिए इस तरह के क्रांति और विद्रोह फिर से ना हो, इसके लिए ब्रिटिश शासकों ने भारत के लोगों को शांत करने के लिए और ब्रिटिश शासन को भारतीयों के हित के लिए कार्य करने वाला सिद्ध करने के लिए 1858 में एक कानून लाया। यह कानून गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट अर्थात भारत शासन अधिनियम 1858 के नाम से जाना गया। इस अधिनियम के माध्यम से भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी को दुराचारी बताकर उसके शासन को समाप्त कर दिया गया और भारत में ब्रिटिश शासन और ब्रिटिश ताज का सीधा नियंत्रण स्थापित कर दिया गया।
भारत अधिनियम 1858 की मुख्य धाराएं
✓•इस अधिनियम के तहत गवर्नर जनरल का नाम बदलकर वायसराय कर दिया गया था।
इस कानून का इस्तेमाल करके अब भारत में गवर्नर की नियुक्ति सीधे ब्रिटिश ताज के द्वारा की जाने लगी।
✓•इस कानून के द्वारा भारत में कंपनी द्वारा बनाए गए बोर्ड ऑफ डायरेक्टर और बोर्ड ऑफ कंट्रोल के पद को समाप्त कर, भारत सचिव की नियुक्ति का प्रावधान किया गया।
✓•इसके साथ ही इस कानून के तहत भारत सचिव की परिषद का भी निर्माण किया गया, इस परिषद में 15 सदस्य होते थे, इनमें से 8 सदस्य ब्रिटिश ताज के द्वारा नियुक्त किए जाते थे। जबकि 7 सदस्य ईस्ट इंडिया कंपनी के पूर्व डायरेक्टरों के द्वारा नियुक्त किए जाते थे।
✓•इस अधिनियम में एक व्यवस्था और की गई थी कि भारत सचिव की परिषद के किसी सदस्य को ब्रिटिश संसद के प्रस्ताव के माध्यम से या फिर ब्रिटिश ताज की स्वीकृति से हटाया जा सकता था। और साथ ही भारत सचिव को भारत के वायसराय से “गुप्त रूप से पत्र व्यवहार” करने का अधिकार भी दिया गया था।
✓•इस अधिनियम मे भारत सचिव को हर वर्ष भारत की आय-व्यय का हिसाब-किताब ब्रिटिश संसद के सामने प्रदर्शित करना पड़ता था।
#1861 के भारतीय परिषद् अधिनियम
इस अधिनियम ने भूतपूर्व अधिनियमों को एक जगह संचित किया और उनमें आवश्यकतानुसार संशोधन लाया गया। यह विकेन्द्रीकरण की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम था। भारतीयों को कानून निर्माण से सम्बंधित कर इसने प्रतिनिधि मूलक संस्थाओं की नीवं डाली।
वायसराय की कार्यकारी परिषद् में एक पांचवां सदस्य सम्मिलित कर दिया गया, जो एक विधि वृत्ति का व्यक्ति था, अर्थात एक विधिवेत्ता न कि एक वकील।
वायसराय की परिषद् को अधिक सुविधा से कार्य करने के लिए नियम बनाने की अनुमति दे दी गई। इस नियम द्वारा लार्ड कैनिंग ने विभागीय प्रणाली की शुरुआत की। इस प्रकार भारत सरकार की मंत्रिमंडलीय व्यवस्था की नींव रखी गई। इस व्यवस्था के अनुसार प्रशासन का प्रत्येक विभाग एक व्यक्ति के अधीन होता था। वह उस विभाग का प्रतिनिधि, प्रशासन के लिए उत्तरदायी और उसका संरक्षक होता था। अतः अब समस्त परिषद् के सम्मुख केवल नीति संबंधी मामले ही आते थे। निश्चय ही यह प्रणाली अधिक सफल थी।
कानून बनाने के लिए वायसराय की कार्यकारी परिषद् में न्यूनतम 6 और अधिकतम 12 अतिरिक्त सदस्यों को नियुक्त कर कार्यकारी परिषद् का विस्तार किया गया। इन सदस्यों को वायसराय द्वारा नियुक्त होना था और वे दो वर्षों तक अपने पद पर बने रह सकते थे। इनमें से न्यूनतम आधे सदस्य गैर सरकारी होंगे। यद्यपि भारतीयों के लिए कोई वैधानिक प्रावधान नहीं था, परन्तु व्यवहार में कुछ गैर सरकारी सदस्य ‘ऊँची श्रेणी के भारतीय’ थे। इस विधान परिषद् का कार्य केवल कानून बनाना था।
यद्यपि इस अधिनियम के अनुसार बम्बई और मद्रास प्रांतों को अपने लिए कानून बनाने व उसमें संशोधन करने का अधिकार पुनः दे दिया गया। इन कानूनों को गवर्नर जनरल की अनुमति आवश्यक थी। ऐसी विधान परिषदें बंगाल, उत्तर-पश्चिमी प्रांत व पंजाब में क्रमशः 1862, 1886 तथा 1897 में इस ऐक्ट के अनुसार स्थापित की गयी।
गवर्नर जनरल को सकंटकालीन अवस्था में विधान परिषद् की अनुमति के बिना ही अध्यादेश जारी करने की अनुमति दे दी गयी। ये अध्यादेश अधिकाधिक 6 माह तक लागू रह सकते थे।
अधिनियम के दोष
सर्वप्रथम, विधि निर्माण के लिए जो गैर सरकारी सदस्यों को सम्मिलित किया गया, वे निर्वाचित सदस्य नहीं थे। वे वायसराय के पिछलग्गु थे। क्योंकि वे भारतीय जनता के विचारों और आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करते थे। और ना ही कानून निर्माण में दिलचस्पी दिखाते थे, और तो और कौंसिलों की बैठकों में कभी-कभी ही उपस्थित होते थे।
1961 के अधिनियम द्वारा निर्मित विधान परिषद् केवल नाम मात्र की कानून बनाने वाली संस्थाएं थीं। न तो संगठन और न ही कार्य के दृष्टिकोण से उसे विधान सभा कहा जा सकता था। यह केवल काननू बनाने के लिए समितियाँ मात्र थीं। उनकी विधायिनी शक्ति बहुत सीमित थी और यह न तो प्रश्न पूछ सकती थी और न ही पेश कर सकती थी। इस संबंध में राज्य सचिव सर चाल्र्स वुड ने विधेयक को प्रस्तुत करते हुए कहा था। कि उनकी भारत में सामान्य प्रतिनिधि परंपरा द्वारा कानून बनाने की प्रणाली आरंभ करने की कोई इच्छा नहीं है। उन्होंने इन प्रस्तावित विधान परिषदों की उपमा भारतीय राजाओं के दरबारों से दी, जहां सामन्त वर्ग अपने विचार व्यक्त करते हैं, परन्तु राजा उनका परामर्श मानने को बाध्य नहीं है।
गर्वनर जनरल को प्रांतीय और केन्द्रीय विधानमंडलों द्वारा पारित विधेयकों को वीटो करने का अधिकार दिया गया था। सबसे अनुचित बात यह थी कि उसे शांति स्थापना और उत्तम सरकार के लिए अध्यादेश जारी करने का अधिकार दिया गया। इस प्रकार गर्वनर को कानून बनाने के संबंध में विशेषाधिकार प्रदान किया गया।
निष्कर्ष
1861 का अधिनियम भारत के संवैधानिक इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण कदम है। इसके साथ भारतीयों में ‘सहयोग की नीति’ की शुरुआत हुई। इसके अतिरिक्त विधायी क्षेत्र में विकेन्द्रीकरण की नीति शुरू हुई। बम्बई और मद्रास के प्रांतों को विधि निर्माण की शक्ति दी गई। इस अधिनियम का अन्य संवैधानिक महत्त्व यह भी है कि इसके प्रवर्तन से भारत में उत्तरदायी संस्था का सूत्रपात हुआ और जनता को अपने कष्टों को सरकार के सामने रखने का अवसर मिला।






