संगम साहित्य, हमें दक्षिण के राजनैतिक,आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति का बोध कराता है। इस साहित्य ने भारतीय साहित्य की न केवल धरोहर में वृद्धि की है बल्कि तत्कालीन समाज का सही चित्रण प्रस्तुत करके भारतीय इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण कड़ी का कार्य किया है।
सामाजिक व्यवस्था–
प्राचीन तमिल समाज का स्वरूप मूलत: जनजातीय था। परन्तु कृषि क्षेत्र में धीरे-धीरे परिवर्तन हो रहा था। धीरे-धीरे पुरानी नातेदारी व्यवस्था कमजोर हो रही थी। और वैदिक वर्ण व्यवस्था स्थापित हो रही थी, किन्तु संगम युग में स्पष्ट से वर्ण विभाजन देखने को नहीं मिलता है। समृद्ध और शक्तिशाली वर्ग में तीन प्रकार के लोग थे, जिनके नाम क्रमशः वेतर, वेलिट, और वेल्लार थे।
संगम जातियाँ- संगम युग में सेनानायक को एनादि की उपाधि दी जाती थी। चोल और पांडय राज्यों में सैनिक और असैनिक दोनों प्रकार के अधिकारियों के पद पर बेल्लार या धनी किसान की नियुक्ति की जाती थी। शासक वर्ग को “अरसर” कहा जाता था और इस वर्ग के लोगों के बेल्लारों से वैवाहिक संबंध होते थे। खेत मजदूर को “कडेसियर” कहा जाता था। खेत मजदूरों के लिए “आटियौर” और “विलय वल्लार” शब्द मिलते हैं। इनके अतिरिक्त अनेक व्यवसायिक वर्ग भी थे। जैसे पुलैयन जाति के लोग रस्सी की चारपाई बनाते थे। तमिल प्रदेश की उत्तरी सीमा पर मलवर नामक लोग रहते थे, उनका पेशा डाका डालना था। “अनियार” शिकारियों की जाति थी। संगम युग में हमें तीव्र सामाजिक विषमता का बोध होता है। धनी लोग ईंट और सुरखी के मकानों में और गरीब लोग झुग्गी-झोपड़ियों में रहते थे। अस्पृश्यता थी, परन्तु दास प्रथा नहीं थी। कुछ विशेष पेशों के अन्तर्गत आने वाले लोगों में लोहार अर्थात कोल्लम, बढ़ई अर्थात् तच्चन, नमक का व्यापारी अर्थात् कबन, अनाज का व्यापारी अर्थात् कुलवा, वस्त्रों का व्यापारी अर्थात् बैवानिकम और स्वर्ण व्यापारी अर्थात् पोन या वाणिकम् कहे जाते थे। बाद में ये जाति, व्यापारी वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत आ गए। तोल्कापियन में वर्णन मिलता है कि तमिल समाज वर्णों में विभाजित था। इसके अनुसार विवाहों को आर्य द्वारा एक संस्कार के रूप में स्थापित किया गया था। तमिल देश में स्त्री और पुरुष के सहज प्रणय को “पाँच तिन्नई” कहा जाता था। एक पक्षीय प्रेम को “कक्किरै” कहा जाता था। औचित्यहीन प्रेम को “पेरून्दिणे” कहा जाता था।
धार्मिक व्यवस्था –
ऋग्वेद में उल्लेखित उत्तरी भारत में आर्य-दस्यु संघर्ष के समान उत्तर और दक्षिण भारत के सांस्कृतिक संपर्क में संघर्ष के तत्त्व नहीं मिलते। अगस्त्य और कौडीन्य ऋषि का दक्षिण भारत से पर्याप्त संबंध रहा है। वहाँ अनेक मंदिर अगस्तेश्वर नाम से प्रसिद्ध है, जहाँ शिव की मूर्तियाँ स्थापित हैं। एक परंपरा के अनुसार पांड्य राजवंश के पुरोहित अगस्त्य वंश के पुरोहित होते थे। ऐसी ही एक परम्परागत अनुश्रुति में माना जाता है कि तमिल भाषा तथा व्याकरण की उत्पत्ति अगस्त्य ऋषि ने की। पुरनानुरू तथा तोल्कापियम के अनुसार अगस्त्य का संबंध द्वारका से था। महाभारत या पुराणों में भी दक्षिण में कृषि के विस्तार से अगस्त्य का संबंध स्पष्ट जोड़ा गया है।
तमिल देवता- दक्षिण भारत में मुरूगन की उपासना सबसे प्राचीन है। बाद में मुरूगन का नाम सुब्रमण्यम हो गया और स्कद-कार्तिकेय से इस देवता का एकीकरण हो गया। पुहार में इन्द्र के सम्मान में उत्सव मनाया जाता था। कोरनाबाई, विजय की देवी थी। मुरूगन शिकार के देवता थे। बहेलिए जाति के लोग कोर्रलै की उपासना करते थे और पशुचारक कृष्ण की पूजा करते थे।
राजनितिक व प्रशासनिक व्यवस्था
संगमयुगीन शासन राजतंत्रात्मक तथा वंशानुगत था। राजा को मन्नम, वेन्दन राजा का मुख्य आदर्श दिग्विजय प्राप्त करना, प्रजा को संतान रूप में स्वीकार करना तथा पक्षपात रहित होकर शासन करना था। सभा के लिए संगम साहित्य में मनरम शब्द मिलता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है भवन। इससे संबंधित दूसरा शब्द पोडियाल मिलता है, जिसका अर्थ है सार्वजनिक स्थल। मनरम के अर्थ में अवैय शब्द भी मिलता है। राजा अपनी सभा में प्रजा की कठिनाइयों पर विचार करता था। सर्वोच्च न्यायालय भी मनरम कहलाता था। राजा के जन्मदिन को पेरूनल कहा जाता था। राजमहल में एक विशेष प्रथा थी जो करलमारम या कादिमारस कहलाती थी। इसके अंतर्गत प्रत्येक शासक अपनी शक्ति के प्रतीक में अपने राजमहल में महान् वृक्ष रखते थे। पुरनानुरू में चक्रवर्ती राजा की अवधारणा मिलती है। राजकीय दरबार में सांस्कृतिक कार्यक्रमों पर विशेष ध्यान दिया जाता था। गायकों के गाने के साथ नर्तकियाँ नाचती थीं और उन्हें पानर या विडैयालिवर कहा जाता था। राजा की सहायता के लिए अधिकारियों का एक समूह होता था जो 5 समूहों में विभाजित था।
जबकि राज्य प्रशासनिक रुप से मंडलों में विभाजित था, मंडल नाडू या जिला में विभाजित था, नाडू, उर या गाँव में विभाजित था। समुद्र तटीय कस्बों को पतिनम कहा जाता था। बड़े गाँव पेरूर, छोटे गाँव सिरूर और पुराने गाँव मुडूर कहलाते थे।
राजकीय आय का मुख्य स्रोत कृषि था। तमिल प्रदेश अपनी उर्वरता के लिए प्रसिद्ध था। कावेरी डेल्टा बहुत उपजाऊ था। आबूर किलार के अनुसार एक हाथी बैठने की जगह में 7 व्यक्तियों का भोजन मिल सकता था। एक अन्य कवि के अनुसार एक बेली भूमि में एक सहस्त्र कलम चावल पैदा होता था। कृषि कर करई या कदमई कहलाता था। भूमि की पैमाइश के लिए मा और बेलि पैमानों का प्रयोग होता था। सामन्तों के द्वारा दिया गया अंश या युद्ध से प्राप्त लूट को इरई कहा जाता था। सीमा शुल्क उलगू या उल्कू कहलाता था। यह वाणिज्य एवं व्यापार की उत्तमता का सूचक है। अतिरिक्त कर या जबरन वसूल किया गया कर इराबू था। राजा को दिया गया उपहार पदु कहलाता था। युद्ध गौरव का विषय था। प्रत्येक शासक के पास पेशेवर सैनिक होते थे, जो पक्षेय कहलाते थे। इसका अर्थ विनाशक होता हैं युद्ध में वीरगति प्राप्त करना शुभ माना जाता था। युद्ध भूमि में वीरगति प्राप्त करने वाले सैनिकों की स्मृति में शिलापट्ट लगाये जाते थे। इसे विराकल या नडुक्कल कहा जाता था।
आर्थिक व्यवस्था
संगम अर्थव्यवस्था सरल और ज्यादातर आत्मनिर्भर थी। बाजार की जगह को “अवनाम” के रूप में जाना जाता था। यह अवधि विभिन्न शहरों जैसे कि पुहार, उरियुर, वनजी, टोंडी, मुजोरिस, मदुरै, कांची, आदि के उद्भव का समय था। विदेशी बाजारों में बढ़ती मांग के कारण उद्योग और शिल्प को एक उत्साह दिया गया।
दक्षिण भारत व मिस्र और अरब के हेलेनिस्टिक साम्राज्य के साथ-साथ मलय द्वीपसमूह के बीच बाहरी व्यापार किया गया था। पेरिप्लस ऑफ एरीथ्रिन सी के लेखक भारत और रोमन साम्राज्य के बीच व्यापार के बारे में सबसे मूल्यवान जानकारी देते हैं। उन्होंने पश्चिमी तट पर प्रमुख लोगों के रूप में नूरा अर्थात् कैनानोर, टाइंडिस अर्थात् टोंडी, मुजोरिस अर्थात् मुसरी, क्रैगनोर और नेल्सींडा के बंदरगाह का उल्लेख किया है।
संचार के विकास में एक मील का पत्थर यूनानी नाविक हिप्पलस द्वारा लगभग 46-47 ईसवी में मानसूनी हवाओं की खोज थी।
इससे व्यापार की मात्रा में वृद्धि हुई। सिंगल लॉग्स से बने बड़े जहाज जिन्हें सांगारा कहा जाता था जबकि बहुत बड़े जहाजों को कोलंडिया मेड वॉयेज कहा जाता था। एक गुमनाम ग्रीक नाविक द्वारा लिखित पेरिथस ऑफ एरीथ्रियन सागर, रोमन साम्राज्य को भारतीय निर्यात का विवरण देता है। जिनमें मुख्य निर्यात थे: काली मिर्च, मोती, हाथी दांत, रेशम, स्पाइक-नारद, मैलाबाथ्रम, हीरे, केसर, कीमती पत्थर और कछुआ खोल।
इसमें अरगरू अर्थात् उरियुर का भी उल्लेख है, जिस स्थान पर तट पर इकट्ठा किए गए सभी मोती भेजे गए थे और जहाँ से कृषि नामक कस्तूरी का निर्यात किया गया था। रेशम, जिसे भारतीय व्यापारियों द्वारा रोमन साम्राज्य को आपूर्ति की जाती थी, को इतना महत्वपूर्ण माना जाता था कि रोमन सम्राट ऑरेलियन ने इसे सोने में अपने वजन के लायक घोषित किया।
मसाले के लिए रोमन की आवश्यकता पूरी तरह से स्थानीय आपूर्ति से पूरी नहीं की जा सकती थी; इसने भारतीय व्यापारियों को दक्षिण-पूर्व एशिया के संपर्क में लाया। अपने निर्यात के बदले में, भारत ने रोमन साम्राज्य से पुखराज, टिन का कपड़ा, लिनन, सुरमा, कच्चा कांच, तांबा, टिन, सीसा, शराब, अनाज और गेहूं जैसे सामानों का आयात किया। रोमनों ने इंडिया वाइन एम्फ़ोरा और रेड ग्लॉज़ेड एरेटीन वेयर का भी निर्यात किया, जो पांडिचेरी के पास एरीकेमेडु में पाए गए हैं। उन्होंने भारत को बड़ी संख्या में सोने और चांदी के सिक्के भी भेजे।
उपहार के द्वारा आर्थिक पुनर्वितरण होता था। व्यापारिक लेन-देन का सबसे सामान्य तरीका वस्तु विनिमय था। तमिल प्रदेश में वस्तु विनिमय प्रणाली में ऋण व्यवस्था नहीं थी। किसी वस्तु पर निश्चित राशि का ऋण लिया जा सकता था। बाद में उसी प्रकार तथा उसी मात्रा में वही वस्तु लौटा दी जाती थी। यह प्रथा “कुरीटिरपरई” कहलाती थी। विनिमय दर निश्चित नहीं थी। धान और नमक दो ही ऐसी वस्तुएँ थीं, जिसकी निश्चित विनिमय दर थी। धान की समान मात्रा के बराबर नमक दिया जाता था।
दूरस्थ व्यापार– उत्तर भारत एवं सुदूर दक्षिण के बीच व्यापार की चर्चा चौथी ईसा पूर्व से ही ज्ञात होती है। प्राचीन बौद्ध ग्रंथों से जिस मार्ग का संकेत मिलता है वह गंगा घाटी से गोदावरी घाटी तक जाता था। यह दक्षिणापथ के नाम से जाना जाता है। कौटिल्य ने दक्षिण मार्ग के अनेक नाम गिनाए है। उत्तर और दक्षिण के बीच व्यापार के अधिकांश मुद्दे विलास की वस्तुएँ थीं, जैसे मोती, रत्न और स्वर्ण। उत्तम किस्म के वस्त्रों का व्यापार भी होता था। उत्तर के उत्तरी काले मृदभांड सुदूर दक्षिण में भी लोकप्रिय था। दक्षिण भारत में भी आहत सिक्के मिले हैं।
विदेश व्यापार– निर्यात की वस्तुएँ, मसाले, रत्नमणि, इमारती लकड़ी और हाथी दांत थे। पेरीप्लस के अनुसार टिंडिस, मुज एमरिस, नेलसिंडा पश्चिम समुद्र तट पर महत्त्वपूर्ण बंदरगाह थे। पेरीप्लस में अरगूडु या उरैयूर नामक स्थान की भी चर्चा करता है। यहाँ से अरगटिक नामक मलमल का निर्यात होता था। लेखक आगे कहता है, मलमल बहुत बड़े पैमाने पर मसालिया में होता था। उत्तर में बसे प्रदेश दोसरने अर्थात् उड़ीसा का विशेष उत्पादन हाथी दांत था। चोल राज्य में पुहार अर्थात् कावेरीपटनम् पांडय युग में शालीयूर और चेर राज्य में बंदर नामक बंदरगाह प्रमुख थे। चेरों की प्राचीन राजधानी करुयुर अर्थात् बंजीपुर से रोमन सामग्री प्राप्त होती है। मुजरिस में रोमन सम्राट् अगस्त्य का मंदिर रोमनों के द्वारा बनाया गया था। विरूक्काम्पलिया नामक स्थान चोर, चेर और पांड्य राज्य के संगम स्थल के रूप है। रोम के अतिरिक्त मिस्र, अरब, चीन और मालद्वीव के साथ व्यापार होता था। इस समय स्थल मार्ग से व्यापारिक कारवां का नेतृत्व करने वाले सार्थवाह को “बासातुस्बा” एवं समुद्री सार्थवाह को “मानानिकम” कहा जाता था।
सिक्के- प्राचीन तमिल साहित्य में कुछ सिक्कों की भी जानकारी मिलती है, उदाहरण के लिए काशु, कनम, पोन और वेनपोन। दस्तकारों को अपने उत्पादों पर शुल्क देना पड़ता था उसे कारूकारा कहा जाता था।






