हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात उत्तर भारत में राजनीतिक विकेंद्रीकरण एवं विभाजन की शक्तियां एक बार पुनः सक्रिय हो गईं। एक ओर वर्तमान असम के कामरूप में “भास्करवर्मा” ने “कर्णसुवर्ण” और उसके आस-पास के क्षेत्रों को जीतकर अपना स्वतंत्र साम्राज्य स्थापित कर लिया, तो दूसरी ओर मगध में हर्ष के सामंत माधवगुप्त के पुत्र आदित्यसेन ने अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली। इस प्रकार भारत के पश्चिमी व उत्तर-पश्चिमी भागों में कई स्वतंत्र राज्यों की स्थापना हुई। सामान्यतः यह काल पारस्परिक संघर्ष और प्रतिद्वंदिता का काल था। इसके पश्चात उत्तर भारत की राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बिंदु कन्नौज बन गया। जिस पर अधिकार करने के लिए विभिन्न शक्तियों में संघर्ष प्रारंभ हुआ।
हर्ष के पश्चात कन्नौज विभिन्न शक्तियों के आकर्षण का केंद्र बन गया। इसे वही स्थान प्राप्त हुआ जो गुप्त काल में मगध का था। वस्तुतः हर्ष और यशोवर्मन ने इसे साम्राज्यिक सत्ता का प्रतीक बना दिया था। क्योंकि उत्तर भारत का चक्रवर्ती सम्राट बनने के लिए कन्नौज पर अधिकार करना आवश्यक समझा जाने लगा। राजनीतिक महत्व होने के साथ-साथ कन्नौज नगर का आर्थिक महत्व काफी बढ़ गया। और यह भी इसके प्रति आकर्षण का एक महत्वपूर्ण कारण सिद्ध हुआ होगा। इस पर अधिकार करने से गंगा घाटी तथा इसमें उपलब्ध व्यापारिक एवं कृषि संबंधी समृद्ध साधनों पर नियंत्रण स्थापित किया जा सकता था। गंगा तथा यमुना के बीच स्थित होने के कारण कन्नौज का क्षेत्र देश का सबसे अधिक उपजाऊ प्रदेश था। और व्यापार व वाणिज्य की दृष्टि से यह काफी महत्वपूर्ण था
जिस प्रकार पूर्व काल में मगध उत्तरापथ के व्यापारिक मार्ग को नियंत्रित करता था, उसी प्रकार की स्थिति कन्नौज ने भी प्राप्त कर ली थी। इस प्रकार राजनीतिक और आर्थिक दोनों ही दृष्टि से इस पर आधिपत्य स्थापित करना लाभप्रद था। अतः इस पर अधिकार करने के लिए आठवीं शताब्दी की तीन बड़ी शक्तियों ने संघर्ष किया , जिनके नाम क्रमशः—
पाल, गुर्जर प्रतिहार और राष्ट्रकूट वंश के रूप में प्राप्त होता है।
वस्तुतः इन तीन शक्तियों के बीच त्रिकोण संघर्ष प्रारंभ हो गया जो आठवीं – नौवीं शताब्दी में उत्तर भारत के इतिहास की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना है।
कन्नौज पर अधिकार के लिए प्रथम संघर्ष, पाल व राष्ट्रकूट वंश के बीच – आठवीं सदी के अंत में, अर्थात 780 से 805 ईसवी के बीच गुर्जर प्रतिहार नरेश वत्सराज, राजपूताना और मध्य भारत के विशाल भू-भाग पर शासन करता था। बंगाल में इसी समय पालों का एक शक्तिशाली साम्राज्य स्थापित हुआ। वत्सराज का पाल प्रतिद्वंदी धर्मपाल, जो 770 से 810 ईस्वी के बीच राजगद्दी पर आसीन था। तो वहीं दक्षिण में राष्ट्रकूट ने अपना राज्य स्थापित कर लिया था। वत्सराज और धर्मपाल का समकालीन राष्ट्रकूट नरेश ध्रुव था। वह भी दक्षिण भारत में अपना राज्य सुदृढ़ कर लेने के पश्चात राजधानी कन्नौज पर अधिकार करना चाहता था। अतः कन्नौज पर अधिपत्य के लिए प्रथम संघर्ष वत्सराज, धर्मपाल और ध्रुव के बीच हुआ।
कन्नौज पर अधिकार के प्रारम्भिक संघर्ष
सर्वप्रथम कन्नौज पर वत्सराज व धर्मपाल ने अधिकार करने की चेष्टा की। परिणामस्वरूप दोनों में गंगा-यमुना के दोआब क्षेत्र में युद्ध हुआ। इस युद्ध में धर्मपाल की पराजय हुई। इसका उल्लेख 808 ईसवी में राष्ट्रकूट शासक गोविंद तृतीय के राधनपुर लेख में हुआ है।
जिसके अनुसार ‘मदांध वत्सराज ने गौड़राज की राजलक्ष्मी को आसानी से हस्तगत कर उसके दो राजछत्रों को छीन लिया। ‘पृथ्वीराजविजय’ में भी इस संबंध में एक संदर्भ मिलता है जिसके अनुसार चाहमान नरेश दुर्लभराज ने गौड़ देश को जीतकर अपनी तलवार को गंगा सागर के जल में नहलाया था। संभवतः वह वत्सराज का सामंत था और उसी की ओर से उसने गौड़ नरेश के विरुद्ध युद्ध में भाग लिया था।
इस प्रकार वत्सराज ने कन्नौज पर अधिकार कर लिया और वहां का शासक इंद्रायुध उसकी अधीनता स्वीकार करने लगा। इसी समय राष्ट्रकूट नरेश ध्रुव ने विंध्यपर्वत पार कर वत्सराज पर आक्रमण किया। वत्सराज बुरी तरह पराजित हुआ और वह राजपूताना के रेगिस्तान की ओर भाग निकला। राधनगर लेख में कहा गया है कि उसने वत्सराज के यश के साथ ही उन दोनों राजछत्रों को भी छीन लिया जिन्हें उसने गौड़ नरेश से लिया था। ध्रुव ने पूर्व की ओर बढ़ कर धर्मपाल को भी पराजित कर दिया। संजन व सूरत के लेखों में ध्रुव की इन सफलताओं का उल्लेख मिलता है।संजन लेख के अनुसार उसने गंगा-यमुना के बीच भागते हुए गौड़राज की लक्ष्मी के लीलारविन्दो और श्वेतछत्रों को छीन लिया। परंतु इन विजयों के पश्चात ध्रुव दक्षिण भारत लौट गया जहां 793 ईस्वी में उसकी मृत्यु हो गई।
पालों और गुर्जर प्रतिहारों के बीच संघर्ष
ध्रुव के उत्तर भारत के राजनीतिक दृष्टि से ओझल होने के बाद पालो व गुर्जर प्रतिहार में पुनः संघर्ष प्रारंभ हो गया। इस बार पालों का पलड़ा भारी था। भागलपुर अभिलेख से पता चलता है कि धर्मपाल ने कन्नौज पर आक्रमण किया था तो वहां इन्द्रायुध को हटा कर अपनी ओर से चक्रायुद्ध को शासक बनाया। इसमें कहा गया है कि धर्मपाल ने इंद्रराज और दूसरे राजाओं को परास्त कर कन्नौज पर अधिकार कर लिया किंतु उसे चक्रायुध को उसी प्रकार वापस दे दिया जिस प्रकार राजा बलि ने इंद्र आदि शत्रु को जीत कर भगवान विष्णु के वामनरूप को तीनो लोक प्रदान किया था।
स्पष्ट है कि यहां इंद्र की समता इंद्रराज से और विष्णु की समता चक्रायुध से की गई है। जबकि खालिमपुर अभिलेख में वर्णन मिलता है कि धर्मपाल ने कान्यकुब्ज के राजा के रूप में स्वयं को अभिषेक करने का अधिकार प्राप्त कर लिया। इसे भोज, मत्स्य, मद्र, कुरु, यदु, यवन, अवन्ति, गांधार और कीर के राजाओं ने अपने मस्तक झुकाकर धन्यवाद देते हुए स्वीकार किया था।
इस विवरण से स्पष्ट है कि कन्नौज के राजदरबार में उपस्थित सभी शासक धर्मपाल की अधीनता स्वीकार करते थे। धर्मपाल एक बड़े भूभाग का शासक था। परंतु उसकी विजय स्थायी नहीं हुई। गुर्जर प्रतिहार वंश की सत्ता 805 से लेकर 833 ईसवी तक वत्सराज के पराक्रमी पुत्र नागभट्ट द्वितीय के हाथों में आ गई। उसने सिंध, आंध्र, विदर्भ व कलिंग को विजित किया और कन्नौज पर आक्रमण कर चक्रायुध को वहां से निकाल दिया।
ग्वालियर प्रशस्ति में कहा गया है कि, चक्रायुध की नीचता इसी बात से सिद्ध थी कि वह दूसरों के ऊपर निर्भर रहता था। वहां दूसरों से तात्पर्य धर्मपाल से हैं। यद्यपि नागभट्ट कन्नौज को जीतने मात्र से संतुष्ट नहीं हुआ, अपितु उसने धर्मपाल के विरुद्ध भी शस्त्र उठा लिया। और इस क्रम में मुंगेर में नागभट्ट व धर्मपाल की सेनाओं के बीच युद्ध हुआ जिसमें पाल नरेश की पराजय हुई । वस्तुतः भयभीत पाल नरेश ने राष्ट्रकूट शासक गोविंद तृतीय से सहायता मांगी। फलस्वरुप गोविंद तृतीय ने नागभट्ट पर आक्रमण किया। संजन ताम्रपत्र से पता चलता है कि उसने नागभट्ट द्वितीय को पराजित किया तथा मालवा पर अधिकार कर लिया। धर्मपाल तथा चक्रायुध ने स्वतः उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। गोविंद आगे बढ़ता हुआ हिमालय तक जा पहुंचा परंतु उत्तर में अधिक दिनों तक नहीं ठहर सका। उसकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर दक्षिण के राजाओं ने उसके विरुद्ध एक संघ बनाया जिसके फलस्वरूप उसे शीघ्र ही अपने गृह-राज्य वापस आना पड़ा।
यद्यपि गोविंद तृतीय के वापस लौटने के पश्चात पालों तथा गुर्जर-प्रतिहारों में पुनः संघर्ष छिड़ गया। इस समय पाल वंश का शासन धर्मपाल के पुत्र देवपाल के हाथ में था। वह शक्तिशाली शासक था। उसने 40 वर्षों तक राज्य किया और उसका साम्राज्य भी विशाल था। जबकि उसका समकालीन गुर्जर-प्रतिहार वंश का रामभद्र एक निर्बल शासक था। वह देवपाल का सामना करने में असमर्थ था। देवपाल के मुंगेर लेख से पता चलता है कि उसने उत्कल, हूण, द्रविड़ एवं गुर्जर-प्रतिहार राजाओं के गर्व को चूर कर दिया। यहां गुर्जर नरेश से तात्पर्य रामभद्र से ही है, जो नागभट्ट का उत्तराधिकारी था।
वस्तुतः देवपाल के बाद विग्रहपाल, और फिर नारायणपाल शासक हुए। इनके समय मे पालो की शक्ति कमजोर पड़ गई। इसी समय गुर्जर-प्रतिहार वंश के शासन की बागडोर अत्यंत पराक्रमी शासक महिरभोज प्रथम के हाथों में आ गई। जो इतिहास के पन्नों में राजा भोज के नाम से प्रसिद्ध है। उसने अपने वंश की प्रतिष्ठा पुनर्स्थापित करने की कोशिश की। सर्वप्रथम भोज ने कन्नौज तथा कालिंजर को जीतकर अपने राज्य में मिलाया। किंतु वह पाल शासक देवपाल और राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय द्वारा पराजित किया गया। ऐसा लगता है कि भोज ने देवपाल के शासन के अंत में उसे पराजित कर दिया। क्योंकि ग्वालियर लेख में कहा गया है कि लक्ष्मी ने धर्म के पुत्र को छोड़कर भोज का वरण किया।
यहाँ धर्म के पुत्र से तात्पर्य धर्मपाल के पुत्र देवपाल से ही है। कृष्ण द्वितीय के देवली व करहद के लेखों में कहा गया है कि उसने भोज को भयभीत किया था। किंतु ये भोज की प्रारंभिक असफलताएं थी। इससे उसे विशेष क्षति नहीं हुई। इसी समय देवपाल की मृत्यु हो गई तथा पालवंश की सत्ता निर्बल व्यक्तियों के हाथों में आ गई। पालों पर राष्ट्रकूटों ने भी आक्रमण किया। इससे भोज को अपनी शक्ति संगठित करने का अवसर मिल गया। उसने चेदि तथा गहलोत वंशों के साथ मैत्री संबंध स्थापित कर अपनी स्थिति मजबूत कर ली। तत्पश्चात उसने देवपाल के उत्तराधिकारी शासक को बुरी तरह परास्त किया। इस समय राष्ट्रकूट तथा चालुक्यों में पारस्परिक संघर्ष चल रहा था।
चालुक्य नरेश विजयादित्य तथा भीम ने राष्ट्रकूट शासक कृष्ण द्वितीय को परास्त किया। कृष्ण की उलझन का लाभ उठाते हुए भोज ने नर्मदा नदी के किनारे उसे परास्त किया तथा मालवा को उससे छीन लिया। तत्पश्चात भोज ने काठियावाड़, पंजाब, अवध आदि प्रदेशों को भी जीत लिया। उसने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की तथा कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया। अंततः 885 ईस्वी में भोज की मृत्यु हो गई।
इस प्रकार साम्राज्य के लिए नवी शताब्दी के तीन प्रमुख शक्तियां – गुर्जर-प्रतिहार, पाल तथा राष्ट्रकूट में- जो त्रिकोणात्मक संघर्ष प्रारंभ हुआ था उसकी समाप्ति हुई। स्पष्ट है कि संघर्ष में अंततोगत्वा प्रतिहारों को ही सफलता प्राप्त हुई। तथा कन्नौज के ऊपर उनका स्थापत्य स्थापित हो गया।
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